पृष्ठ:मानसरोवर २.pdf/२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२१
कुसुम

मनुष्य पर अपनी विजय का परिचय देकर उड़ जाते थे। एक बङा-सा आखफोड़ भी मेज पर बेटा था और शायद जस्त मारने के लिए अपनी देह तौल रहा था। युवक ने एक पंखा लाकर मेज़ पर रख दिया, जिससे विजयी कीट-पतंगों को दिखा दिया कि मनुष्य इतना निर्बल नहीं है, जितना वे समझ रहे थे। एक क्षण में मदान साफ हो गया और हमारी बातों में दखल देनेवाला कोई न रहा ।

युवक ने सकुचाते हुए कहा-~-सम्भव है, आप मुझे अत्यन्त लोभी, कमीना और स्वार्थी समझे , लेकिन यथार्य यह है कि इस विराह में मेरी वह अभिलाषा पूरी न हुई, जो मुझे प्राणों में भी प्रिय थी। मैं विवाह पर रजामन्द न था, अपने पैरों में बेड़िया न डालना चाहता था; किन्तु जय महाशय नवीन बहुत पीछे पड़ गये और उनकी बातों से मुझे यह आशा हुई कि यह सब प्रकार से मेरी महायता करने को तैयार है, , तब में राज़ी हो गया; पर विवाह होने के बाद उन्होंने मेरी बात भी न पूरी। मुझे एक पत्र भोग लिखा कि कब तक वह मुझे विलायत भेजने का प्रबन्ध कर सकेंगे । हालांकि मेने अपनी इच्छा उन पर पहले ही प्रकट का दी थी, पर उन्होंने मुझे निराश करना हो उचित समझा । उनकी इस अकृपा ने मेरे सारे मनसूबे धूल में मिला दिये। मेरे लिए अब इसके सिवा और क्या रह गया है कि एल.एल बी. पारा कर लूं और कचहरी में जूती फटफटाता फिरू ।

मैंने पूछा-तो आखिर तुम नवीनजी से क्या चाहते हो? लेन-देन में तो उन्होंने शिकायत का कोई अवसर नहीं दिया । तुम्हें विलायत भेजने खर्च तो शायद उनके काबू से बाहर हो ।