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डामुल का कैदी


साल बड़ी है। माँ-बेटी दोनों उसी मिल में काम करती हैं। दादी बहुत बूढ़ी हो गई है।

प्रमीला ने विस्मित होकर कहा-तुझे उनका पता कैसे चला बेटा?

कृष्णचन्द्र प्रसन्नचित्त होकर बोला--मैं आज उस मिल में चला गया था । मैं उस स्थान को देखना चाहता था, जहाँ मजूरों ने पिताजी को घेरा और वह स्थान भी, जहाँ गोपीनाथ गोली खाकर गिरा था; पर उन दोनों में एक स्थान भी न रहा। वहाँ इमारतें बन गई हैं। मिल का काम बड़े जोर से चल रहा है। मुझे देखते ही बहुत से आदमियों ने मुझे घेर लिया । सब यही कहते थे, तुम तो भैया गोपीनाथ का रूप धरकर आये हो। मजूरों ने वहाँ गोपीनाथ की एक तस्वीर लटका रखी है। मैं उसे देखकर चकित हो गया अम्माँ, जैसे मेरी ही तस्वीर हो, केवल मूँछों का अन्तर है। जब मैंने गोपी की स्त्री के बारे में पूछा, तो एक आदमी दौड़कर उसकी स्त्री को बुला लाया। वह मुझे देखते ही रोने लगी। और न-जाने क्यों मुझे भी रोना अ गया। बेचारी स्त्रियाँ बड़े कष्ट में हैं। मुझे तो उनके ऊपर ऐसी दया आती है कि उनकी कुछ मदद करू।

प्रमीला को शंका हुई, लड़का इन झगड़ों में पड़कर पढ़ना न छोड़ बैठे। बोली - अभी तुम उनकी क्या मदद कर सकते हो बेटा? धन होता, तो कहती, दस-पाँच रुपये महीना दे दिया करो, लेकिन घर का हाल तो तुम जानते ही हो। अभी मन लगाकर पढ़ो। जब तुम्हारे पिताजी आ जाये, तो जो इच्छा हो, वह करना।

कृष्णचन्द्र ने उस समय कोई जवाब न दिया, लेकिन आज से उनका नियम हो गया कि स्कूल से लौटकर एक बार गोपी के परिवार को देखने अवश्य जाता। प्रमीला उसे जेब खर्च के लिए जो पैसे देती, उसे उन अन्यों ही पर खर्च करता है कभी कुछ फल ले लिये, कभी शाक-भाजी ले ली।

एक दिन कृष्णचन्द्र को घर आने में देर हुई, तो प्रमीला बहुत घबराई। पता लगाती हुई विधवा के घर पहुँची, तो देखा-एक तंग गली में, एक सीले, सड़े हुए मकान में गोपी की स्त्री एक खाट पर पड़ी है और कृष्णचन्द्र खड़ा उसे पंखा झल रहा है। माता को देखते ही बोला- मैं अभी घर न आऊँगा अम्माँ ! देखो, काकी कितनी बीमार हैं। दादी को कुछ सूझता नहीं, बिन्नो खाना पका रही है। इनके पास कौन बैठे?