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मानसरोवर

प्रमीला ने खिन्न होकर कहा- अब तो अंधेरा हो गया, तुम यहाँ कब तक बैठे रहोगे। अकेला घर मुझे भी तो अच्छा नहीं लगता। इस वक्त चलो। सवेरे फिर आ जाना।

रोगिणी ने प्रमीला की आवाज़ सुनकर आँखें खोल दीं और सन्द स्वर में बोली आओ माताजी, बैठो। मैं तो भैया से कह रही थी, देर हो रही है, अब घर जाओ। पर यह गये ही नहीं। मुझ अभागिनी पर इन्हें न-जाने क्यों इतनी दया आती है। अपना लड़का भी इससे अधिक मेरी सेवा न कर सकता।

चारों तरफ से दुर्गन्ध आ रही थी। उमस ऐसी थी कि दम घुटा जाता था। उस बिल में हवा किधर से आती; पर कृष्णचन्द ऐसा प्रसन्न था, मानो कोई परदेशी चारों ओर से ठोकरें खाकर अपने घर में आ गया हो।

प्रमीला ने इधर-उधर निगाह दौड़ाई, तो एक दीवार पर उसे एक तस्वीर दिखाई दी। उसने समीप जाकर उसे देखा, तो उसकी छाती धक-से हो गई। बेटे की ओर देखकर बोली- तूने यह चित्र कब खिंचवाया बेटा है।

कृष्णचन्द्र मुसकिराकर बोला—यह मेरा चित्र नहीं है अम्माँ, गोपीनाथ की चित्र है।

प्रमीला ने अविश्वास से कहा-चल, झूठा कहीं का।

रोगिणी ने कातर भाव से कहा- नहीं अम्माँजी, यह मेरे आदमी ही का चित्र है। भगवान् की लीला कोई नहीं जानता, पर भैया की सूरत इतनी मिलती है कि मुझे अचरज होता है। जब मेरा ब्याह हुआ था, तब उनकी यही उम्र थी, और सूरत भी बिलकुल यही। यही हँसी थी, यही बात-चीत, यही स्वभाव। क्या रहस्य है, मेरी समझ में नहीं आता। माताजी, जबसे यह आने लगे हैं, कह नहीं सकती, मेरा जीवन कितना सुखी हो गया है। इस मुहल्ले में सब हमारे ही जैसे मजूर रहते है। उन सभी के साथ यह लड़कों की तरह रहते है। सब इन्हें देखकर निहाल हो जाते हैं।

प्रमीला ने कोई जवाब न दिया। उसके मन पर एक अव्यक्त शका छाई हुई थी, मानों उसने कोई बुरा सपना देखा हो। उसके मन में बार-बार एक प्रश्न उठ रहा था, जिसकी कल्पना ही से उसके रोयें खड़े हो जाते थे।