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डामुल का कैदी

सहसा उसने कृष्णचन्द्र का हाथ पकड़ लिया और बलपूर्वक खींचती हुई द्वार की और चली, मानो कोई उसे उसके हाथ से छीन लिये जाता है।

रोगिणी ने केवल इतना कहा-माताजी, कभी-कभी भैया को मेरे पास आने दिया करना, नहीं मैं मर जाऊँगी।

( ६ )

पन्द्रह साल के बाद भूतपूर्व सेठ खूबचन्द अपने नगर के स्टेशन पर पहुँचे। हराभरा वृक्ष ठूँठ होकर रह गया था। चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ी हुई, सिर के बाल सन, दाढ़ी जगल की तरह बढ़ी हुई, दाँतों का कहीं नाम नहीं, कसर झुकी हुई। ठूँठ को देखकर कौन पहचान सकता है कि यह वही वृक्ष है, जो फल-फूल और पत्तियों से लदा रहता था, जिस पर पक्षी कलरव करते रहते थे।

स्टेशन के बाहर निकलकर वह सोचने लगे-कहाँ जाएँ? अपना नाम लेते लज्जा आती थी। किससे पूछे, प्रमीला जीती है या मर गई? अगर हैं, तो कहाँ है? उन्हें देखकर वह प्रसन्न होगी, या उनकी उपेक्षा करेगी?

प्रमीला का पता लगाने में ज्यादा देर न लगी। खूबचन्द की कोठी अभी तक खूबचन्द की कोठी कहलाती थी। दुनिया कानून के उलट-फेर क्या जानें। अपनी कोठी के सामने पहुंचकर उन्होंने एक तम्बोली से पूछा-क्यों भैया, यही तो सेठ खूबचन्द की कोठी है।

तम्बोली ने उनकी और कुतूहल से देखकर कहा-खूबचन्द की जब थी तब थी, अब तो लाला देशराज की है। अच्छा! मुझे यहाँ आये बहुत दिन हो गये। सेठजी के यहाँ नौकर था। सुना, सेठजी को कालापानी हो गया था?'

“हाँ, बेचारे भलमनसी में मारे गये। चाहते तो बेदारा बच जाते। सारा घर मिट्टी में मिल गया।'

‘सेठानी तो होंगी?' “हाँ, सेठानी क्यों नहीं हैं। उनका लड़का भी है।

सेठजी के चेहरे पर जैसे जवानी की झलक आ गई। जीवन का वह आनन्द और उत्साह, जो आज पन्द्रह साल से कुम्भकरण की भाँति पड़ा सो रहा था, मानो नयी स्फूति पाकर उठ बैठा और अब उस दुर्बल काया में समा नहीं रहा है।