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मानसरोवर


पद प्रात करना चाहते हैं। विद्यार्जन के लिए विदेश जाना बुरा नहीं। ईश्वर सामर्थ्य दे तो शौक से जाओ ; किन्तु पत्नी का परित्याग करके ससुर पर इसका भार रखना निर्लज्जता की पराकाष्ठा है। तारीफ की बात तो तब थी कि तुम अपने पुरुषार्थ से जाते । इस तरह किसीकी गरदन पर सवार होकर, अपना आत्म-सम्मान बेचकर, गये तो क्या गये । इस पामर की दृष्टि में कुसुम का कोई मुल्य ही नहीं। वह केवल उसकी स्वार्थ सिद्धि का साधन मात्र है । ऐसे नीच प्रकृति के आदमी से कुछ तर्क करना व्यर्थ था। परिस्थिति ने हमारी चुटिया उसके हाथ में रखी थी और हमे उसके चरणों पर सिर झुकाने के सिवा और कोई उपाय न था।

दूसरी गाड़ी से मैं आगरे जा पहुंँचा और नवीनजी से यह वृत्तान्त कहा। उन बेचारे को क्या मालम था कि यहाँ सारी ज़िम्मेदारी उन्हीं के सिर डाल दी गई है ; यद्यपि इस मन्दी ने उनकी वकालत भो ठण्डी कर रखी हैं और वह दस-पाँच हज़ार का खर्च सुगमता से नहीं उठा सकते ; लेकिन इस युवक ने उनसे इसका सक्ते भी किया होता, तो वह अवश्य कोई-न-कोई उपाय करते । कुसुम के सिवा दूसरा उनका कौन बैठा हुआ है । उन बेचारे को तो इस बात का ज्ञान ही न था। अतएव मैंने ज्योंही उनसे यह समाचार कहा, तो वह बोल उठे-छि ! इस ज़रा-सी बात को इस भले आदमी ने इतना तूल दे दिया। आप आज ही उसे लिख दें कि वह जिस वक्त जहाँ पढने के लिए जाना चाहे, शौक से जा सकता है । मै उसका सारा भार स्वीकार करता हूँ। साल-भर तक निर्दयी ने कुसुम को रुला-रुलाकर मार डाला।

घर मे इसकी चर्चा हुई। कुसुम ने भी माँ से सुना । मालूम हुआ, एक हजार का चेक उसके पति के नाम भेजा जा रहा है , पर इस तरह, जैसे किसी सङ्कम का मोचन करने के लिए अनुष्ठान किया जा रहा हो।

कुसुम ने भृकुटी सिकोड़कर माँ से कहा-- अम्माँ, दादा से कह दो, कहीं रुपये भेजने की ज़रूरत नहीं।

माता ने विस्मित होकर बालिका की और देखा--कैसे रुपये ? अच्छा ! वह ! क्यों इसमें क्या हज है ? लड़के का मन है, तो विलायत जाकर पढे । हम क्यों रोकने लगे । यों भी उसी का है, ओ भी उसी का है। हमें कौन छाती पर लादकर ले जाना है।

'नहीं, आप दादा से कह दीजिए, एक पाई न भेजें।'

'आखिर इसमें क्या बुराई है ?'