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मानसरोवर


को प्राप्त नहीं। यहाँ लोग अपनी सम्पत्ति का प्रदर्शन करने नहीं, अपनी श्रद्धा को भेंट देने आते हैं।

मजूर-स्त्रियाँ गा रही हैं, बालक दौड़-दौड़कर छोटे-मोटे काम कर रहे हैं । और पुरुष झांकी के बनाव-श्रृंगार में लगे हुए हैं।

उसी वक्त सेठ खूबचन्द आये । स्त्रियाँ और बालक उन्हे देखते ही चारों ओर से दौड़कर जमा हो गये। यह मन्दिर उन्हींके सतत उद्योग का फल है। मजूर-परिवारो की सेवा ही अब उनके जीवन का उद्देश्य है । उनका छोटा-सा परिवार अब विराट-रूप हो गया है। उनके सुख को वह अपना सुख और उनके दुःख को अपना दु ख मानते हैं। मजूरों में शराब, जुए और दुराचरण को वह कसरत नहीं रही । सेठजी की सहायता, सत्संग और सद्व्यवहार पशुओं को मनुष्य बना रहा है।

सेठजी ने बाल-रूप भगवान् के सामने जाकर सिर झुकाया और उनका मन अलौकिक आनन्द से खिल उठा । उस झांकी में उन्हे कृष्णचन्द्र की झलक दिखाई दी। एक ही क्षण मे उसने जैसे गोपीनाथ का रूप धारण किया । दाहिनी ओर से देखते थे, तो कृष्णचन्द ; बाई और से देखते थे, तो गोपीनाथ !

सेठजी का रोम-रोम पुलकित हो उठा। भगवान् को व्यापक दया का रूप आज जीवन में पहली बार उन्हे दिखाई दिया। अब तक भगवान् की दया को वह सिद्धान्त-रूप से मानते थे। आज उन्होंने उसका प्रत्यक्ष रूप देखा । एक पथ-भ्रष्ट, पतनोन्मुखी आत्मा के उद्धार के लिए इतना दैवी विधान ! इतनी अनवरत ईश्वरीय प्रेरणा ! सेठजी के मानस-पट पर अपना सम्पूर्ण जीवन सिनेमा-चित्रों को भांति दौड़ गया । उन्हें जान पड़ा, जैसे आज बीस वर्ष से ईश्वर की कृपा उन पर छाया किये हुए है। गोपीनाथ का बलिदान क्या था ? विद्रोही मजूरों ने जिस समय उनका मकान घेर लिया था, उस समय उनका आत्म-समर्पण ईश्वर की दया के सिवा और क्या था ? पन्द्रह साल के निर्वासित जीवन में, फिर कृष्णचन्द्र के रूप में, कौन उनकी आत्मा की रक्षा कर रहा था?

सेठजी के अन्तःकरण से भक्ति की विह्वलता मे डूबी हुई जयध्वनि निकली- कृष्ण भगवान् की जय ।. और जैसे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड दया के प्रकाश से जगमगा उठा।

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