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नेउर

आकाश में चाँदी के पहाड़ भाग रहे थे, टकरा रहे थे, गले मिल रहे थे, जैसे सूर्य-मेघ संग्राम छिड़ा हो। कभी छाया हो जाती थी, कभी तेज धूप चमक उठती थी। बरसात के दिन थे, उमस हो रही थी। हवा बन्द हो गई थी।

गाँव के बाहर कई मजूर एक खेत को मेंड़ बांध रहे थे। नंगे बदन, पसीने में तर, कछनी कसे हुए, सब-के-सब फावड़े से मिट्टी खोदकर मेंड़ पर रखते जाते थे। पानी से मिट्टी नरम हो गई थी।

गोबर ने अपनी कानी आंख मटकाकर कहा—अब तो हाथ नहीं चलता भाई। गोला भी छूट गया होगा, चबेना कर लें।

नेउर ने हँसकर कहा—यह मेंड़ तो पूरी कर लो, फिर चबेना कर लेना। मैं तो तुमसे पहले आया।

दोनों ने सिर पर झौवा उठाते हुए कहा—तुमने अपनी जवानी में जितना भी खाया होगा नेउर दादा, उतना तो अब हमें पानी भी नहीं मिलता।

नेउर छोटे डील का, गठीला, काला, फुर्तीला आदमी था। उम्र पचास से ऊपर थी, मगर अच्छे-अच्छे नौजवान उसके बराबर मेहनत न कर सकते थे। अभी दो-तीन साल पहले तक कुश्ती लड़ता था । जबसे गाय मर गई, कुश्ती लड़ना छोड़ दिया था।

गोबर—तुमसे बे तमाखू पिये केसे रहा जाता है नेउर दादा ! यहाँ तो चाहे रोटी न मिले , लेकिन तमाखू के बिना नहीं रहा जाता।

दीना—तो यहाँ से जाकर रोटो बनाओगे दादा ? बुढिया कुछ नहीं करती । हमसे तो दादा ऐसी मेहरिया से एक दिन न पटे।

नेउर के पिचके, खिचड़ी मूंछों से ढके मुख पर हास्य को स्मित रेखा चमक उठी, जिसने उसकी कुरुपता को भी सुन्दर बना दिया। बोला-जवानी तो उसीके साथ कटी है बेटा, अव उससे कोई काम नहीं होता, तो क्या करूँ।