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नेउर


से भरे हुए प्रेम में 'मैं' की गन्ध भी तो नहीं थी। कितना स्नेह है। और किसे उसके आराम को, उसके मरने-जीने की चिन्ता है। फिर वह क्यों न अपनी बुढ़िया के लिए मरे । वोला -तू उस जनम मे कोई देची रही होगी बुधिया, सच ।

'अच्छा रहने दो यह चापलूसी। हमारे आगे अब कौन बैठा हुआ है, जिसके लिए इतना हाय-हाय करते हो ?'

नेउर गज-भर की छाती किये स्नान करने चला गया। लोटकर उसने मोटी-मोटी रोटियां बनाई । आलू चूल्हे में डाल दिये थे। उनका भुरता बनाया ; फिर बुधिया और वह दोनों साथ खाने बैठे।

बुधिया-मेरो जात से तुम्हे कोई सुख न मिला । पढे-पढे खाती हूँ और तुम्हे तंग करती हूँ। इससे तो कहीं अच्छा था कि भगवान् मुझे उठा लेते।

'भगवान् आयेंगे तो मैं कहूँगा, पहले मुझे ले चलो। तब इस सूनो झोपड़ी में कोन रहेगा।'

'तुम न रहोगे, तो मेरी क्या दसा होगी, यह सोचकर मेरी आँखों में अंधेरा आ जाता है। मैंने कोई बढ़ा पुन किया था कि तुम्हें पाया। किसी और के साथ मेरा भला क्या निबाह होता।'

ऐसे मोठे संतोष के लिए नेउर क्या नहीं कर डालना चाहता था । आलसिन, लोभिन, स्वार्थिन बुधिया अपनी जीभ पर केवल मिठास रखकर नेउर को नचाती रहती थी, जैसे कोई शिकारी कँटिये में चारा लगाकर मछली को खेलाता है।

पहले कौन मरे, इस विषय पर आज यह पहली बार बातचीत न हुई थी। इसके पहले भी स्तिनी हो बार यह प्रश्न उठा था और यों ही छोड़ दिया गया था, लेकिन न-जाने क्यो नेउर ने अपनी डिग्री कर ली थी और उसे निश्चय था कि पहले मैं जाऊँगा। उसके पीछे भी बुधिया जब तक रहे, आराम से रहे, किसीके सामने हाथ न फैलाये, इसी लिए वह मरता रहता था, जिसमें हाथ में चार पैसे जमा हो जायें। कठिन-से-कठिन काम, जिसे कोई न कर सके, नेउर करता । दिन-भर फावड़े-कुदाल का काम करने के बाद रात को वह ऊख के दिनों में किसी को ऊख पेरता, या खेतों की रखवाली करता; लेक्नि दिन निकलते जाने थे और जो कुछ कमाता था, वह भी निकलता जाता था। बुधिया के बगैर यह जीवन..... नहीं, इसकी यह कल्पना हो न कर सकता था।