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मानसरोवर


क्या तुम समझती हो, तब वह मुझे ज़लील न समझेगी ? हरएक पुरुष चाहता कि उसकी स्त्री उसे कमाऊ, योग्य, तेजस्वी समझे और सामान्यतः वह जितना है, उससे बढकर अपने को दिखाता है । मैंने कभी नादानी नहीं की, कभी स्त्री के सामने डींग नहीं मारी , लेकिन स्त्रो की दृष्टि में अपना सम्मान खोना तो कोई भी न चाहेगा।

माँ-तुम कान लगाकर और ध्यान देकर और मीठी मुसकिराहट के साथ उसकी बाते सुनोगे, तो वह क्यों न शेर होगी । तुम खुद चाहते हो कि स्त्री के हाथों मेरा अपमान कराओ। मालूम नहीं, मेरे किन पापों का तुम मुझे यह दड दे रहे हो। 'किन अरमानों से, कैसे-कैसे कष्ट झेलकर मैंने तुम्हें पाला । खुद नहीं पहना, तुम्हें पहनाया , खुद नहीं खाया, तुम्हे खिलाया। मेरे लिए तुम उस मरनेवाले की निशानी थे और मेरी सारी अभिलाषाओ के केन्द्र । तुम्हारी शिक्षा पर मैंने अपने हज़ारों के आभूषण होम कर दिये ! विधवा के पास दूसरों कौन-सी निधि थी। इसका तुम मुझे -यह पुरस्कार दे रहे हो !

बेटा-मेरी समझ में नहीं आता कि आप मुझसे चाहती क्या हैं । आपके उप- कारों को मैं कब मेट सकता हूँ। आपने मुझे केवल शिक्षा नहीं दिलाई, मुझे जीवन- दान दिया, मेरी सृष्टि की । अपने गहने ही नहीं होम किये, अपना रक्त तक पिलाया, अगर मैं सौ बार अवतार लू, तो भी इसका बदला नहीं चुका सकता । मैं अपनी जान में आपकी इच्छा के विरुद्ध कोई काम नहीं करता, यथासाध्य आपकी सेवा में कोई बात उठा नहीं रखता, जो कुछ पाता हूँ, लाकर आपके हाथों पर रख देता हूँ; और आप मुझसे क्या चाहती हैं, और मैं कर ही क्या सकता हूँ? ईश्वर ने हमें और आपको और सारे संसार को पैदा किया। उसका हम उसे क्या बदला दे सकते हैं ? उसका नाम भी तो नहीं लेते। उसका यश भी तो नहीं गाते। इससे क्या उसके उपकारों का भार कुछ कम हो जाता है ? मां के बलिदानों का प्रतिशोध कोई बेटा नहीं कर सकता, चाहे वह भू-मण्डल का स्वामी ही क्यों न हो । ज्यादा-से-ज्यादा मैं आपकी दिलजोई ही तो कर सकता हूँ, और मुझे याद नहीं आता कि मैंने कभी -आपको असन्तुष्ट किया हो।

मां-तुम मेरी दिलजोई करते हो ? तुम्हारे घर में मैं इस तरह रहती हूँ जैसे कोई लौंडी । तुम्हारी बीबी कभी मेरी बात भी नहीं पूछती। मैं भी कभी बहू थी । खत को घंटे भर सास की देह दबाकर, उनके सिर में तेल डालकर, उन्हें दूध पिला-