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मानसरोवर


कर रहा हूँ, तो तुम या तुम्हारी बहू वहाँ जाकर खड़ी हो जाय । स्त्रो भी अपनी सहेलियो के साथ बैठी हो, तो मैं वहाँ बिना बुलाये न जाऊँगा। यह तो आजकल का शिष्टाचार है।

माँ-तुम तो हर बात में उसीका पच्छ करते हो बेटा, न-जाने उसने कौन-सी जड़ी सुंधा दी है तुम्हे। यह कौन कहता है कि वह हम लोगो के बीच में आ कूदे , लेकिन बड़ों का उसे कुछ तो आदर-सत्कार करना ही चाहिए ।

बेटा-किस तरह?

माँ-जाकर अंचल से उनके चरण छुए, प्रणाम करे, पान खिलाये, पहा झले । इन्हीं बातो से बहू का आदर होता है। लोग उसकी प्रशंसा करते हैं। नहीं सब-की- सव यही कहती होगी कि बहू को घमंड हो गया है, किसीसे सीधे मुंह बात तक नहीं करती।

बेटा--(विचार करके) हां, यह अवश्य उसका देष है। मैं उसे समझा दूंगा।

माँ - (प्रसन्न होकर) तुमसे सच कहती हूँ बेटा, चारपाई से उठती तक नहीं, सब औरतें थुड़ी-थुड़ी करती हैं , मगर उसे तो शर्म जैसे छू ही नहीं गई, और मैं हूँ कि मारे शर्म के मरी जाती हूँ।

बेटा---यही मेरी समझ में नहीं आता, तुम हर बात में अपने को उसके कामों का ज़िम्मेदार क्यों समझ लेती हो। मुझ पर दफ्तर में न जाने कितनी घुड़कियाँ पड़ती हैं, रोज ही तो जवाब-तलब होता है , लेकिन तुम्हे मेरे साथ सहानुभूति होती है ? क्या तुम समझती हो, अफसरों को मुझसे कोई वैर है, जो अनायास ही मेरे पीछे पड़े रहते हैं, या उन्हे उन्माद हो गया है, जो अकारण ही मुझे काटने दौड़ते है ? नहीं, इसका कारण यही है कि मैं अपने काम मे चौकस नहीं हूँ। गल्तियाँ करता हूँ, सुस्ती करता हूँ, लापरवाही करता हूँ। जहाँ अफसर सामने से टला कि लगे समाचार-पत्र पढने या ताश खेलने । क्या उस वक्त हमे यह खयाल नहीं रहता कि काम पड़ा हुआ है और यह ताश खेलने का अवसर नहीं है । लेकिन कौन परवाह करता है। सोचते हैं, साहव डाँट ही तो बतायेंगे, सिर झुकाकर सुन लेंगे, बाधा टल जायगी। पर तुम मुझे दोषी समझकर भी मेरा पक्ष लेती हो और तुम्हारा बस चले,' तो हमारे बड़े बाबू को मुझसे जवाब-तलब करने के अभियोग में कालेपानी भेज दो।