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गृह-नीति


हूँ, तुम्हारी प्रशंसा ही करता है। छोटे-से बड़े तक गुलामों को तरह दौड़ते फिरते हैं। अगर उनके बस में हो, तो तुम्हारे लिए स्वर्ग के तारे तोड़ लावे और उसका जवाब मुझे यहाँ यह मिलता है कि बात-बात पर ताने-मेहने, तिरस्कार, बहिष्कार । मेरे घर तो तुमसे कोई नहीं कहता कि तुम देर मे क्यों उठे, तुमने अमुक महोदय को सलाम क्यों नहीं किया, अमुक के चरणो पर सिर क्यों नहीं पटका। मेरे बाबूजी कभी गवारा न करेंगे कि तुम उनकी देह पर मुक्कियाँ लगाओ, या उनकी धोती धोओ या उन्हे खाना पकाकर खिलाओ। मेरे साथ यहां यह बर्ताव क्यों ? मैं यहा लौंडी बनकर नहीं आई हूँ, तुम्हारी जीवन-सगिनी बनकर आई हूँ। मगर जीवन-सगिनी का यह अर्थ तो नहीं कि तुम मेरे ऊपर सवार होकर मुझे चलाओ। यह मेरा काम कि जिस जिस तरह चाहूँ तुम्हारे साथ अपने कर्तव्य का पालन करूँ। उसको प्रेरणा मेरी आत्मा- से होनी चाहिए, ताड़ना या तिरस्कार से नहीं। अगर कोई मुझे कुछ सिखाना चाहता है, तो माँ की तरह प्रेम से सिखाये, मैं सीखूँगी , लेकिन कोई ज़बरदस्ती, मेरी छाती पर चढकर, अमृत भी मेरे कण्ठ में ठूँसना चाहे, तो मैं ओठ बन्द कर लूंगी। मैं अब कब की इस घर को अपना समझ चुकी होती, अपनी सेवा और कर्तव्य का निश्चय कर चुकी होती , मगर यहाँ तो हर घड़ी, हर पल, मेरी देह मे सुई चुभाकर मुझे याद दिलाया जाता है कि तू इस घर को लौडी है, तेरा इस घर से कोई नाता नहीं, तू सिर्फ गुलामी करने के लिए यहाँ लाई गई है, और मेरा रक्त खौलकर रह जाता है , अगर यही हाल रहा, तो एक दिन तुम दोनो मेरी जान लेकर रहोगे।

माँ - सुन रहे हो अपनी चहेती रानी की बातें । वह यहाँ लौंडी बनकर नहीं, रानी बनकर आई है । हम दोनों उसकी टहल करने के लिए है, उसका काम हमारे ऊपर शासन करना है, उसे कोई कुछ काम करने को न कहे, मैं खुद मरा करूँ। और तुम उसकी बातें कान लगाकर सुनते हो। तुम्हारा मुँह कभी नहीं खुलता कि उसे डांटो या समझाओ। थरथर कांपते रहते हो।

बेटा-अच्छा अम्मां, ठण्डे दिल से सोचो। मैं इसकी बातें न सुनूँ, तो कौन सुने ? क्या तुम इसके साथ इतनी हमदर्दी भी नहीं देखना चाहती ? आखिर बाबूजी जीवित थे, तब वह तुम्हारी बातें सुनते थे या नहीं ? तुम्हे प्यार करते थे या नहीं ? फिर मैं अपनी बीबी की बातें सुनता हूँ तो, कोन-सी नयी बात करता हूँ, और तुम्हारे बुरा मानने की कौन बात है ?