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गृह-नीति

स्त्री-विना सुने ही मैंने समझ लिया क्या बातें हो रही होगी। वही बहू का रोना..

पति-नहीं, नहीं । तुमने बिलकुल गलत समझा । अम्मा के मिजाज में आज मैंने विस्मयकारी अन्तर देखा, विलकुल अभूतपूर्व। आज वह जैसे अपनी कटुताओं पर लजित हो रही थीं। हां, प्रत्यक्ष रूप से नहीं, संकेत रूप से । अब तक वह तुमसे इसलिए नाराज रहती थीं कि तुम देर में उठती हो । अब शायद उन्हे यह चिन्ता हो रही है कि कहीं सबेरे उठने से तुम्हे ठण्ड न लग जाय । तुम्हारे लिए पानी गर्म करने को कह रही थीं।

स्त्री-(प्रसन्न होकर ) सच ।

पति-हाँ, मुझे तो सुनकर आश्चर्य हुआ ।

स्त्री-- तो अब मैं मुंह-अँधेर उठूंगी। ऐसी ठण्ड क्या लग जायगी, लेकिन तुम मुझे चकमा तो नहीं दे रहे हो ?

पति-अब इस बदगुमानी का क्या इलाज । आदमी को कभी-कभी अपने न्याय पर खेद तो होता ही है।

स्त्री-तुम्हारे मुंह में घी-शक्कर । अब मैं गजरदम उठूँगी। वह बेचारी मेरे लिए क्यों पानी गर्म करेंगी। मैं खुद गर्म कर लूंगी। आदमी करना चाहे तो क्या नहीं कर सकता

पति-~-मुझे उनकी बात सुन-सुनकर ऐसा लगता था, जैसे किसी देवो आदेश ने उनकी आत्मा को जगा दिया हो । तुम्हारे अल्हड़पन और चपलता पर कितना भन्नाती हैं। चाहती थीं कि घर में कोई बड़ी-बूढी आ जाय, तो तुम उसके चरण छुओ , लेकिन शायद अब उन्हे मालूम होने लगा है कि इस उम्र मे सभी थोड़े बहुत अल्हड़ होते हैं। शायद उन्हें अपनी जवानी याद आ रही है। कहती थी, यही तो शौक- सिगार, पहनने- ओढने, खाने-खेलने के दिन थे। बुद्धियों का तो दिन-भर तांता लगा रहता है, कोई कहाँ तक उनके चरण छुए और क्यों छुए। ऐसी कहाँ की धड़ी देवियाँ हैं।

स्त्री-मुझे तो हर्षोन्माद हुआ चाहता है।

पति-मुझे तो विश्वास ही न आता था। स्वप्न देखने का सन्देह हो रहा था ।

स्त्री-अव आई हैं राह पर ।

पति -कोई दैवी प्रेरणा समझो।