पृष्ठ:मानसरोवर २.pdf/२५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२६८
मानसरोवर

स्त्री~-मैं कल से ठेठ बहू बन जाऊँगी। किसी को खबर भी न होगी कि कब अपना मेक-अप करती हूँ । सिनेमा के लिए भी रासाह में एक दिन काफी है। बूढियों के पांव छू लेने में ही क्या हरज है। वह देवियाँ न सही, चुडैले सही , मुझे आशी- र्वाद तो देगी, मेरा गुण तो गायेंगी।

पति-सिनेमा का तो उन्होंने नाम भी नहीं लिया।

स्त्री--तुमको जो इसका शौक है । अब तुम्हे भी न जाने दूंगी ।

पति-लेकिन सोचो, तुमने कितनी ऊँची शिक्षा पाई है, किस कुल की हो, इन खूसट बुढ़ियो के पांव पर सिर रखना तुम्हे विलकुल शोभा न देगा ।

स्त्री-तो क्या ऊँची शिक्षा के यह मानी हैं कि हम दूसरों को नीचा समझे ? बुड्ढे कितने ही मूर्ख हो , लेकिन दुनिया का तजरवा तो रखते हैं। कुल को प्रतिष्ठा भी नम्रता और सद्व्यहार से होती हे, हेकड़ी और रुखाई से नहीं ।

पति-मुझे तो यही ताज्जुब होता है कि इतनी जल्द इनकी काया पलट कैसे हो गई । अब इन्हे बहुओ का सास के पाँव दबाना या उनकी साड़ी धोना, या उनकी देह में मुक्कियाँ लगाना चुरा लगने लगा है। कहती थीं, बहू कोई लोडी थोड़े ही है कि बैठी सास का पांव दवाये।

स्त्री-मेरी कसम ?

पति-हाँ जी, सच कहता हूँ। और तो और, अव वह तुम्हे खाना भी न पकाने देंगी। कहती थीं, जब बहू के सिर में दर्द होता है, तो क्यो उसे सताया जाय, कोई महाराज रख लो।

स्त्री-(फूली न समाकर ) मैं तो आकाश में उड़ी जा रही हूँ। ऐसी सास के तो चरण धो-धोकर पिये , मगर तुमने पूछा नहीं, अब तक तुम क्यों उसे मार-मार- कर हकीम बनाने पर तुली रहती थी।

पति-पूछा क्यो नहीं, भला मैं छोड़नेवाला था । बोली, मैं अच्छी हो गई थी, मैंने हमेशा खाना पकाया है, फिर यह क्यो न पकाये। लेकिन अब उनकी समझ मे आया है कि वह निर्धन बाप की बेटी थीं, तुम सम्पन्न कुल की कन्या हो ।

स्त्री-अम्माजी दिल की साफ है।

पति- लेकिन तुमको उनकी पुरानी आदतों का ध्यान तो रखना ही होगा ।

स्त्री-इसे मैं क्षमा के योग्य समझती हूँ। जिस जल-वायु मे हम पलते हैं, उसे