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खुदाई फौजदार


बन्द आदमी आ जाये, तो वह अकेला क्या कर सकता है । शायद उनकी आहट पाते ही भाग खड़ा हो । पड़ोसियों में ऐसा कोई नज़र न आता था, जो इस सकट में काम आवे । यद्यपि सभी उनके असामी थे, या रह चुके थे , लेकिन यह एहसान-फरामोशों का सम्प्रदाय है, जिस पत्तल में खाता है, उसीमें छेद करता है, जिसके द्वार पर अवसर पड़ने पर नाक रगड़ता है, उसीका दुश्मन हो जाता है । इनसे कोई आशा नहीं। हाँ, किवाड़े सुदृढ़ हैं, उन्हें तोड़ना आसान नहीं, फिर अन्दर का दरवाजा भी तो है। सौ आदमी लग जायँ, तो हिलाये न हिले। और किसी ओर से हमले का खटका नहीं। इतनी ऊँची सपाट दोबार पर कोई क्या खाके चढ़ेगा। फिर उनके पास रायफलें भी तो हैं । एक रायफल से वह दरजनों आदमियों को भूनकर रख देंगे, मगर इतने प्रतिबन्धो के होते हुए भी उनके मन में एक हूक-सी समाई रहती थी। कौन जाने चौकीदार भी उन्हीं मे मिल गया हो, खिदमतगार भी आस्तीन के साँप हो गये हों । इसलिए वह अब बहुधा अन्दर ही रहते थे, और जब तक मिलनेवालों का पता-ठिकाना न पूछ लें , उनसे मिलते न थे। फिर भी दो-चार घण्टे तो चौपाल मे बैठना ही पड़ता था, नहीं सारा कारोबार मिट्टी में न मिल जाता । जितनी देर बाहर रहते थे, उनके प्राण जैसे सूली पर टेंगे रहते थे। इधर उनके मिजाज़ में बड़ी तबदीली हो गई थी। इतने विनम्र और मिष्टभाषी वह कभी न थे । गालियाँ तो क्या, किसी से तू तकरार भी न करते । सूद की दर भी कुछ घटा दी थी , लेकिन फिर भी चित्त को शान्ति न मिलती थी। आखिर कई मिनट तक दिल को मजबूत करने के बाद पत्र खोला, और जैसे गोली लग गई। सिर में चक्कर आ गया और सारी चीजें नाचती हुई मालूम हुई । साँस फूलने लगा। आँखें फैल गई। लिखा था, तुमने हमारे दोनों पत्रों पर कुछ भी ध्यान न दिया। शायद तुम समझते होगे कि पुलिस तुम्हारी रक्षा करेगी , लेकिन यह तुम्हारा भ्रम है। पुलिस उस वक्त आयेगी, जब हम अपना काम करके सौ कोस निकल गये होगे। तुम्हारी अक्ल पर पत्थर पड़ गया है, इसमे हमारा कोई दोष नहीं। हम तुमसे सिर्फ २५ हज़ार रुपये मांगते हैं। इतने रुपये दे देना तुम्हारे लिए कुछ भी मुश्किल नहीं । हमे पता है कि तुम्हारे पास एक लाख की मोहर रखी हुई हैं, लेकिन 'विनाशकाले विपरीत-बुद्धि ।' अब हम तुम्हे और ज्यादा न समझायेंगे । तुमको समझाने की चेष्टा करना ही व्यर्थ है। आज शाम तक अगर रुपये न आ गये, तो रात को तुम्हारे ऊपर धावा होगा। अपनी हिमायत‌