पृष्ठ:मानसरोवर २.pdf/२६८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२८३
लाटरी

तजवीज मुझे भी पसंद आई । मैं उन दिनों स्कूल-मास्टर था। बीस रुपये मिलते थे। उनमे बड़ी मुश्किल से गुज़र होती थी। दस रुपये का टिकट खरीदना मेरे लिए सुफेद हाथी खरीदना था। हाँ, एक महीना दूध और घी ओर जलपान और ऊपर के सारे खर्च तोड़कर पाँच रुपये की गुजाइश निकल सकती थी। फिर भी जी डरता था। कहीं से कोई बालाई रकम मिल जाय, तो कुछ हिम्मत वढे ।

विक्रम ने कहा -कहो तो अपनी अँगूठी बेच डालूँ ? कह दूंगा, उँगली से फिसल पड़ी।

अँगूठी दस रुपये से कम की न थी। उसमें पूरा टिकट आ सकता था ; अगर कुछ खर्च किये बिना ही टिकट मे आवा-साझा हुआ जाता है, तो क्या बुरा है।

सहसा विक्रम फिर चोला - लेकिन भई, तुम्हे नकद देने पड़ेंगे। मैं पाँच रुपये नकद लिए बगैर साझा न करूंगा।

अब मुझे औचित्य का ध्यान आ गया। बोला-नहीं दोस्त, यह बुरी बात है। चोरी खुल जायगो, तो शर्मिन्दा होना पड़ेगा, और तुम्हारे साथ मुझ पर भी डॉट पड़ेगी।

आखिर यह तय हुआ कि पुरानी किताबें किसी सेकेण्ड हैंड किताबों की दूकान पर बेच डाली जाये और उस रुपये से टिकट लिया जाय । किताबो से ज्यादा वेज़रूरत हमारे पास और कोई चीज़ न थी। हम दोनों साथ ही मैट्रिक पास हुए थे और यह देखकर कि जिन्होने डिग्रियाँ लों, और आँखें फोड़ों, और घर के रुपये बरबाद किये, वह भी जूतियां चटका रहे हैं, हमने वहीं हाट कर दिया। मैं स्कूल-मास्टर हो गया और विक्रम मटरगश्त करने लगा। हमारी पुरानी पुस्तके अब दीमको के सिवा हमारे किसी काम की न थीं। हमसे जितना चाटते बना चाटा, उनका सत्त निकाल लिया, अब चूहे चाटें या दीमक, हमें परवाह न थी। आज हम दोनो ने उन्हे कूड़ेखाने से निकाला और झाड़-पोछकर एक बड़ा-सा गट्ठरं बाँधा । मैं मास्टर था, किसी बुकसेलर को दुकान पर किताब बेचते हुए झेपता था । मुझे सभी पहचानते थे , इसलिए यह खिद- मत विक्रम के सुपुर्द हुई और वह आध घटे मे दस रुपये का एक नोट लिये उछलता कूदता आ पहुँचा । मैंने उसे इतना प्रसन्न कभी न देखा था। किताबें चालीस रुपये से कम की न थीं , पर यह दस रुपये उस वक्त हमे जैसे पडे हुए मिले। अब टिकट