के साझे गे कोठो चलेगी। जब कुछ बन जमा हो जायगा, तब वह यात्रा करेगा।
लेन-देन मे सूद भी अच्छा मिलेगा और अपना रोव दाब भी रहेगा। हाँ, जब तक
अच्छी जमानत न हो, किसीको रुपया न देना चाहिए, चाहे असामी कितना ही
मातबर क्यों न हो । और जमानत पर रुपये दे ही क्यों । जायदाद रेहन लिखाकर रुपये
देंगे। फिर तो कोई खटका न रहेगा।
यह मज़िल भी तय हुई। अब यह प्रश्न उठा कि टिकट पर किसका नाम रहे । विक्रम ने अपना नाम रखने के लिए बड़ा आग्रह किया , अगर उसका नाम न रहा, तो वह टिकट ही न लेगा। मैंने कोई उपाय न देखकर मजूर कर लिया, और विना किसी लिखा-पढी के, जिससे आगे चलकर मुझे बड़ी परेशानी हुई।
( २ )
एक-एक करके इन्तजार के दिन करने लगे। भोर होते हो हमारी आँखें कैलेंडर पर जाती । मेरा मकान विक्रम के मकान से मिला हुआ था। स्कूल जाने के पहले और स्कूल से आने के बाद हम दोनों साथ बैठकर अपने-अपने मसूबे बाँधा करते और इस तरह सांय-सांय कि कोई सुन न ले। हम अपने टिकट खरीदने का रहस्य छिपाये रखना चाहते थे। यह रहस्य जब सत्य का रूप धारण कर लेगा, उस वक्त लोगों को कितना विस्मय होगा ! उस दृश्य का नाटकीय आनन्द हम नहीं छोड़ना चाहते थे।
एक दिन बातो बात में विवाह का ज़िक्र आ गया। विक्रम ने दार्शनिक गम्भी- रता से कहा --भई, शादी-वादी का जंजाल तो मैं नहीं पालना चाहता। व्यर्थ की चिंता और हाय-हाय । पत्नी की नाज़बरदारो मे ही बहुत-से रुपये उड़ जायेंगे।
मैंने इसका विरोध किया—हाँ, यह तो ठीक है, लेकिन जब तक जीवन के सुख-दु ख का कोई साथी न हो, जीवन का आनन्द हो क्या। मैं तो विवाहित जीवन से इतना विरक्त नहीं हूँ। हाँ, साथी ऐसा चाहता हूँ, जो अन्त तक साथ रहे और ऐसा साथी पत्नी के सिवा दूसरा नहीं हो सकता।
विक्रम ज़रूरत से ज्यादा तुनुकमिज़ाजी से बोला- खेर, अपना-अपना दृष्टिकोण
है। आपको बीबी मुबारक और कुत्तों को तरह उसके पीछे-पीछे चलना और बच्चों को
संसार को सबसे बढ़ी विभूति और ईश्वर की सबसे बड़ी दया समझना मुबारक । बन्दा
तो आज़ाद रहेगा, अपने मजे से चाहा और जब चाहा उड़ गये और जव चाहा घर