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लाटरी


आ गया है, तब तो वह अभी से इनकार कर देगा ; अगर नहीं आया है, तो इस सन्देह से उसे मर्मान्तक वेदना होगी। आदमो ऐसा तो नहीं है, मगर भई, दौलत पाकर ईमान सलामत रखना कठिन है। अभी तो रुपये नहीं मिले हैं। इस वक्त ईमानदार बनने में क्या खर्च होता है। परीक्षा का समय तो तब आयेगा, जब दस लाख रुपये हाथ में होंगे। मैंने अपने अन्त करण को टटोला-अगर टिकट मेरे नाम का होता और मुझे दस लाख मिल जाते, तो क्या मैं आधे रुपये विना कान-पूंछ हिलाये विक्रम के हवाले कर देता ? कौन कह सकता है , मगर अधिक सम्भव यही था कि मैं हीले हवाले करता, कहता- तुमने मुझे पाँच रुपये उधार दिये थे। उसके दस ले लो, सौ ले लो, और क्या करोगे , मगर नहीं, मुझसे इतनी बद-दियानती न होती।

दूसरे दिन हम दोनों अखबार देख रहे थे कि सहसा विक्रम ने कहा-कहीं हमारा टिकट निकल आये, तो मुझे अफसोस होगा, कि नाहक तुमसे साझा किया !

वह सरल भाव से मुसकिराया , मगर यह थी उसके आत्मा की झलक जिसे वह विनोद की आड़ में छिपाना चाहता था।

मैंने चौककर कहा-सच । लेकिन इसी तरह मुझे भी तो अफसोस हो सकता है ?

'लेकिन टिकट तो मेरे नाम का है ?'

'इससे क्या ।'

'अच्छा, मान लो, मैं तुम्हारे साझे से इनकार कर जाऊ?'

मेरा खून सर्द हो गया । आँखों के सामने अंधेरा छा गया।

'मैं तुम्हें इतना बदनीयत नहीं समझता।'

'मगर है बहुत सम्भव । पाँच लाख ! सोचो, दिमाग चकरा जाता है।'

'तो भई, अभी से कुशल है, लिखा-पढो कर लो। यह संशय रहे ही क्यो ?'

विक्रम ने हँसकर कहा---तुम बड़े शको हो यार ! मैं तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। भला, ऐसा कहीं हो सकता है। पांच लाख क्या, पांच करोड़ भी हों, तब भी ईश्वर चाहेगा, तो नीयत में खलल न आने दूंगा।

किन्तु मुझे उसके इन आश्वासनों पर बिलकुल विश्वास न आया। मन मे एक संशय पैठ गया।