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मानसरोवर

विक्रम की माता ने सुना कि दोनो भाइयो में ठनी हुई है और मल्लयुद्ध हुआ चाहता है, तो दौड़ी हुई बाहर आई और दोनों को समझाने लगी,

छोटे ठाकुर ने बिगड़कर कहा -आप मुझे क्या समझाती हैं, उन्हें समझाइए, जो चार-चार टिकट लिए बैठे हुए हैं। मेरे पास क्या है, एक टिकट । उसका क्या भरोसा। मेरी अपेक्षा जिन्हें रुपये मिलने का चौगुना चास है, उनकी नीयत बिगड़ जाय, तो लज्जा और दु.ख की बात है।

ठकुराइन ने देवर को दिलासा देते हुए कहा-अच्छा, मेरे रुपये में से आधे तुम्हारे । अब तो खुश हो ।

बड़े ठाकुर ने बीबी की जबान पकड़ी-क्यों आधे ले लेंगे ? मैं एक धेला भी न दूंगा। हम मुरौवत और सुहृदयता से काम लें, फिर भी इन्हे पांचवें हिस्से से ज़्यादा किसी तरह न मिलेगा। आधे का दावा किस नियम से हो सकता है, न बौद्धिक, न धार्मिक, न नैतिक ।

छोटे ठाकुर ने खिसियाकर कहा-सारी दुनियां का कानून आप ही तो जानते हैं!

'जानते ही हैं, तीस साल तक वकालत नहीं की है ?'

'यह वकालत निकल जायगी, जब सामने कलकत्ते का बैरिस्टर खड़ा कर दूंगा।'

'बैरिस्टर की ऐसी-तैसी, चाहे वह कलकत्ते का हो या लन्दन का।'

'मैं आधा लूंगा, उसी तरह जैसे घर की जायदाद मे मेरा आधा है।'

इतने में विक्रम के बड़े भाई साहब सिर और हाथ मे पट्टी बाँधे, लँगड़ाते हुए, कपड़ो पर ताज़ा खून के दारा लगाये, प्रसन्न-मुख आकर एक आराम-कुरसी पर गिर पड़े ! बड़े ठाकुर ने घबड़ाकर पूछा-यह तुम्हारी क्या हालत है जी । ऐ, यह चोट कैसे लगी है किसी से मार-पीट तो नहीं हो गई ?

प्रकाश ने कुरसी पर लेटकर एक वार कराहा, फिर मुसकिराकर बोले-जी, कोई बात नहीं, ऐसी कुछ बहुत चोट नहीं लगी।

कैसे कहते हो चोट नहीं लगी ? सारा हाथ और सिर सूज गया है। कपड़े खून से तर। यह मुआमला क्या है ? कोई मोटर दुर्घटना तो नहीं हो गई ?'

बहुत मामूली चोट है साहब, दो-चार दिन में अच्छी हो जायगी। घबराने की कोई बात नहीं।'