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मानसरोवर

गये, और छकुराइन भी प्रकाश के लिए भोजन का प्रबंध करने गई , त्योही छोटे ठाकुर ने प्रकाश से पूछा- क्या बहुत ज़ोर से पत्थर मारते हैं ? जोर से तो क्या मारते होंगे।

प्रकाश ने उनका आशय समझकर कहा-अरे साहब, पत्थर नहीं मारते, बमगोले मारते हैं। देव-सा तो डोल-डौल है, और बलवान् इतने हैं कि एक चूसे में शेरों का काम तमाम कर देते हैं । कोई ऐसा-वैसा आदमी हो, तो एक ही पत्थर में टे हो जाय। कितने ही तो मर गये; मगर आज तक झक्कड़ बाबा पर मुकदमा नहीं चला । और दो-चार पत्थर मारकर ही नहीं रह जाते, जब तक आप गिर न पड़ें और वेहोश न हो जायँ, वह मारते जायेंगे । सगर रहस्य यही है आप जितनी ज्यादा चोटे खायेंगे, उतने ही अपने उद्देश्य के निकट पहुंचेंगे।

प्रकाश ने ऐसा रोए खड़े कर देनेवाला चित्र खींचा कि छोटे ठाकुर साहब थर्रा उठे। पत्थर खाने की हिम्मत न पड़ी।

( ४ )

आखिर भाग्य के निपटारे का दिन आया-जुलाई को बीसवीं तारीख कत्ल को रात ! हम प्रातःकाल उठे, तो जैसे एक नशा चढ़ा हुआ था, आशा और भय के द्वन्द्व का। दोनों ठाकुरो ने घड़ी रात रहे गंगा-स्नान किया था और मन्दिर में बैठे पूज कर रहे थे। आज मेरे मन में श्रद्धा जागी । मदिर में जाकर मन-ही-मन ठाकुरजी की स्तुति करने लगा-अनाथों के नाथ, तुम्हारी कृपा-दृष्टि क्या हमारे ऊपर न होगी ? तुम्हें क्या मालूम नहीं, हमने कितनी मुश्किल से टिकट खरीदे हैं ! तुम तो अन्तर्यामी हो । संसार में हमसे ज्यादा तुम्हारी दया कौन deserve करता है ? विक्रम सूट-बूट पहने मन्दिर के द्वार पर आया, मुझे इशारे से बुलाकर इतना कहा- मैं डाक- खाने जाता हूँ, और हवा हो गया। जरा देर मे प्रकाश मिठाई के थाल लिए हुए घर में से निकले और मंदिर के द्वार पर खड़े होकर कगालों को बांटने लगे, जिनकी एक भीड़ जमा हो गई थी। और दोनों ठाकुर भगवान् के चरणों में लौ लगाए बैठे हुए थे, सिर झुकाये आखें बन्द, अनुराग में डूबे हुए ।

बड़े ठाकुर ने सिर उठाकर पुजारी की ओर देखा और बोले-भगवान तो बड़े भक्त-वत्सल हैं, क्यो पुजारीजी ?