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खुदाई फौजदार


करने का पक्का इरादा कर लिया था। डरें, क्यों, जो कुछ होना है, वह होकर रहेगा। अपनु रक्षा करना हमारा कर्तव्य है, मरना-जीना विधि के हाथ में है । सेठानोजी को दिलासा देते हुए बोले--तुम नाहक इतना डरतो हो केसर ! आखिर वह सब भी तो आदमी हैं ! अपनी जान का मोह उन्हें भी है, नहीं यह कुकर्म ही क्यों करते ? मैं खिड़की की आड़ से दस-बीस आदमियों को गिरा सकता हूँ। पुलिस को इत्तला देने भी जा रहा हूँ। पुलिस का कर्तव्य है कि हमारी रक्षा करे। हम दस हज़ार सालाना टैक्स देते हैं, किसलिए ? मैं अभी दारोगाजी के पास जाता हूँ। जब सरकार हमसे टैक्स लेती है, तो हमारी मदद करना उसका धर्म हो जाता है।

राजनीति का यह तत्व उसकी समझ में न आया। वह तो किसी तरह उस भय से मुक्त होना चाहती थी, जो उसके दिल मे साँप की भांति बैठा फुफकार रहा था। पुलिस का उसे जो अनुभव था, उससे चित्त को सन्तोष न होता था। बोली-पुलिस- वालों को बहुत देख चुकी। वारदात के समय तो उनको सूरत नही दिखाई देती। जब वारदात हो चुकती है, तब अलबत्ता शान के साथ आकर रोब जमाने लगते हैं।

'पुलिस तो सरकार का राज चला रही है, तुम क्या जानो।'

में तो कहती हूँ, यो अगर कल वारदात होनेवाली होगी, तो पुलिस को खबर देने से आज ही हो जायगो । लूट के माल में इनका भो साझा होता है।

'जानता हूँ, देख चुका हूँ और रोज देखता हूँ, लेकिन मैं सरकार को दस हजार सालाना टैक्स देता हूँ। पुलिसवालो का आदर-सत्कार भी करता रहता हूँ। अभी जाड़ो से सुपरिटेंडेंट साहब आये थे, तो मैंने कितनी रसद पहुँचाई थी। एक पूरा कनस्तर धी और एक शकर की पूरी बोरो भेज दी थी। यह सब खिलाना- पिलाना किस दिन काम आयेगा ? हाँ, आदमी को सोलहो आने दूसरों के भरोसे न बैठना चाहिए , इसलिए मैंने सोचा है, तुम्हे भी बन्दूक चलाना सिखा दू । हम दोनों बन्दूकें छोड़ना शुरू करेंगे, तो डाकुओं की क्या मजाल है कि अन्दर कदम रख सकें।

प्रस्ताव हास्यजनक था। केसर ने मुस्कराकर कहा-हाँ, और क्या अब आज मैं बन्दूक चलाना सीखूँगी । तुमको जव देखो, हॅसी ही सूझती है।

'इसमे हँसो की क्या बात है ? आजकल तो औरतों को फोजे बन रही हैं। सपाहियों की तरह ओरतें भी कवायद करती हैं, बन्दूक चलाती हैं, मैदानों में खेलती हैं। ओरतों के घर में बैठने का जमाना अब नहीं है।'