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मानसरोवर


जा सकती है लेकिन वे खुद जवानी का स्वप्न देखते रहते थे। उनकी जवानी की तृष्णा अभी शान्त न हुई थी। जाड़ों में रसों और पाकों का सेवन करते रहते थे । हफ्ते में दो बार खिजाब लगाते और एक डाक्टर से संकोग्लैंड के विषय में पत्र- व्यवहार कर रहे थे।

लीला ने उन्हें असमंजस में देखकर कातर स्वर में पूछा-कुछ बतला सकते हो, के बजे आओगे।

लालाजी ने शान्तभाव से पूछा--तुम्हारा जी आज कैसा है ?

लीला क्या जवाब दे ? अगर कहती है कि बहुत खराब है तो शायद ये महाशय, वहीं बैठ जाये और उसे जली-कटी सुनाकर अपने दिल का बुखार निकाले । कहती है कि अच्छी हूँ तो शायद निश्चिन्त होकर दो बजे तक कहीं खबर लें। इस दुविधा में डरते-डरते बोली-अब तक तो हलकी थी, लेकिन अब कुछ भारी हो रही है। तुम जाओ, दूकान पर लोग तुम्हारी राह देखते होंगे। हाँ, ईश्वर के लिए एक-दो न बजा देना । लड़के सो जाते हैं, मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगता, जी घबराता है।

सेठजी ने अपने स्वर में स्नेह की चाशनी देकर कहा-बारह बजे तक आ जाऊँगा ज़रूर 1

लीला का मुख धूमिल हो गया । उसने कहा दस बजे तक नहीं आ सकते ?

'साढ़े ग्यारह से पहले किसी तरह नहीं।'

'नहीं साढे दस।'

'अच्छा ग्यारह बजे।'

लालाजी वादा करके चले गये, लेकिन दस बजे रात को एक मित्र ने मुजरा सुनने के लिए बुला भेजा। इस निमन्त्रण को कैसे इनकार कर देते । जब एक आदमी आपको खातिर से बुलाता है, तब यह कहां की भल्मनसाहत है कि आप उसका निमन्त्रण अस्वीकार कर दें।

लालाजी मुजरा सुनने चले गये, दो बजे लौटे। चुपके से आकर नौकर को जगाया और अपने कमरे में जाकर लेट रहे। लीला उनकी राह देखती, प्रतिक्षण विकल वेदना का अनुभव करती हुई न-जाने कब सो गई थी।

अन्त को इस बीमारी ने अभागिनी लीला की जान ही लेकर छोड़ा। लालाजी