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मानसरोवर

यही शब्द घटा-बढ़ाकर वे आशा के हृदय-पटल पर अकित करते रहते थे। उससे बराबर सिनेमा, थियेटर और दरिया की सैर के लिए आग्रह करते रहते। लेकिन आशा को न जाने क्यों इन बातों से ज़रा भी रुचि न थी। वह जाती तो थी, मगर बहुत टाल-टूल करने के बाद । एक दिन लालाजी ने आकर कहा-चलो आज बजरे पर दरिया की सैर करें ।

वर्षा के दिन थे, दरिया चढा हुआ था, मेघ मालाएँ अन्तर्राष्ट्रीय सेनाओं की भौति रग-बिरगी वर्दियाँ पहने आकाश में कवायद कर रही थीं। सड़क पर लोग मलार और बारहमासे गाते चलते थे । बागों में झूले पड़ गये थे।

आशा ने बेदिली से कहा--मेरा जी तो नहीं चाहता।

लालाजी ने मृदु प्रेरणा के साथ कहा-"तुम्हारा मन कैसा है, जो आमोद-प्रमोद की ओर आकर्षित नहीं होता ? चलो, जरा दरिया की सैर देखो। सच कहता हूँ, बजरे पर बड़ी बहार रहेगी।

'आप जाय । मुझे और कई काम करने हैं।'

'काम करने को आदमी हैं। तुम क्या काम करोगी?'

'महाराज अच्छे सालन नहीं पकाता। आप खाने बैठेगे तो योहो उठ जायेंगे।'

'लीला अपने अवकाश का बढ़ा भाग लालाजी के लिए तरह-तरह का भोजन पकाने मे ही लगाती थी। उसने किसी से सुन रखा था कि एक विशेष अवस्था के बाद पुरुष के जीवन का सबसे बड़ा सुख रसना का स्वाद ही रह जाता है

लालाजी को आत्मा खिल उठी। उन्होंने सोचा कि आशा को उनसे कितना प्रेम है कि वह दरिया की सैर को उनको सेवा के लिए छोड़ रही है। एक लीला थी कि मान-न-मान चलने को तैयार रहती थी। पीछा छुड़ाना पड़ता था, खामखाह सिर पर सवार हो जाती थी और सारा मजा किरकिरा कर देती थी।

स्नेह-भरे उलहने से बोले--तुम्हारा मन भी विचित्र है। अगर एक दिन सालन फीका ही रहा, तो ऐसा क्या तूफान आ जायगा। तुम तो मुझे विलकुल निकम्मा बनाये देती हो । अगर तुम न चलोगी तो मैं भी न जाऊँगा।

आशा ने जैसे गले से फन्दा छुड़ाते हुए कहा--आप भी तो मुझे इधर-उधर घुमा-धुमाकर मेरा मिज़ाज़ बिगाड़े देते हैं । यह आदत पड़ जायगी तो घर का धन्धा कौन करेगा?