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नया विवाह


उतनी तरह के। हाँ, एक बात समान होती। सब वीच में मोटे होते, किनारे पतले, दाल कभी तो इतनी पतली जैसे चाय, कभी इतनी गाढ़ी जैसे दही। नमक कभी इतना कम कि बिलकुल फीकी, कभी इतना तेज़ कि नीबू का शाकीन । आशा मुँह- हाथ धोकर चौके में पहुँच जाती और इस ढपोरसख को भोजन पकाना सिखाती। एक दिन उसने कहा-तुम कितने नालायक आदमी हो जुगल । आखिर इतनी उन तक तुम घास खोदते रहे या भाड़ झोंकते रहे कि फुलके तक नहीं बना सकते । जुगल आँखों में आँसू भरकर कहता-बहुजी, अभी मेरी उम्र ही क्या है। सत्रहवां ही तो पूरा हुआ है।

आशा को उसकी बात पर हँसी आ गई। उसने कहा-~तो रोटियां पकाना क्या दस-पांच साल में आता है ?

'आप एक महीना सिखा दें बहुजी, फिर देखिए, मै आपको कैसे फुलके खिलाता हूँ कि जी खुश हो जाय । जिस दिन हमें फुलके बनाने आ जायेंगे, मैं आपसे कोई इनाम लूंगा । सालन तो अब मैं कुछ-कुछ बनाने लगा हूँ, क्यों न ?'

आशा ने हौसला बढानेवाली मुसकराहट के साथ कहा-सालन नहीं, वह बनाने आता है । अभी कल ही नमक इतना तेज़ था कि खाया न गया। मसाले में कचाहँद आ रही थी।

'मैं जब सालन बना रहा था, तब आप यहाँ कब थीं ?'

'अच्छा, तो मैं जब यहाँ बैठी रहूँ तब तुम्हारा सालन बढ़िया पकेगा ?'

'आप बैठी रहती है तब मेरी अक्ल ठिकाने रहती है।'

आशा को जुगल की इन भोली बातों पर खूब हँसी आ रही थी। हँसी को रोकना चाहती थी, पर वह इस तरह निकल पड़ती थी, जैसे भरी बोतल उड़ेल दी गई हो।

'और मैं नहीं रहती तब?'

'तब तो आपके कमरे के द्वार पर जा बैठती है।'

'वहाँ बैठकर क्या किया करती है ?'

'वहाँ बैठकर अपनी तकदीर को रोती है।'

आशा ने हँसी को रोककर पूछा-क्यों, रोती क्यों है ?

'यह न पूछिए, बहुजी, आप इन बातों को नहीं समझेगी।

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