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मानसरोवर

आशा ने उसके मुंह की ओर प्रश्न की आँखों से देखा। उसका आशय कुछ तो समझ गई, पर न समझने का बहाना किया।

'तुम्हारे दादा आ जायेंगे तब तुम चले जाओगे?'

'और क्या करूँगा बहूजी। यहां कोई काम दिलवा दीजिएगा तो पड़ा रहूँगा। मुझे मोटर चलाना सिखवा दीजिए। आपको खूब सैर कराया करूँगा। नहीं, नहीं बहुजी, आप हट जाइए मैं पतोली उतार लूंगा। ऐसी अच्छी साड़ी है आपकी, कहाँ कोई दाग पड़ जाय तो क्या हो ?'

आशा पतीलो उतार रही थी । जुगल ने उनके हाथ से सॅड्सी ले लेनी चाही।

'दूर रहो। फूहड़ तो तुम हो ही । कहीं पतीली पांव पर गिरा ली तो महीनों झीकोगे।'

जुगल के मुख पर उदासी छा गई।

आशा ने मुसकराकर पूछा - क्यों, मुंह क्यों लटक गया सरकार का ?

जुगल रुआंसा होकर वोला-आप मुझे डांट देती हैं वहूजी, तब मेरा दिल टूट जाता है। सरकार कितना ही घुड़के, मुझे बिलकुल ही दुख नहीं होता। आपको नज़र कड़ी देखकर मेरा खून सर्द हो जाता है।

आशा ने दिलासा दिया। मैंने तुम्हें डॉटा तो नहीं, केवल यही तो कहा कि कहीं पतीली तुम्हारे पाँव पर गिर पडे तो क्या हो ?

'हाथ ही तो आपका भी है। कहीं आपके हाथ से ही छूट पड़े तो ?'

लाला डगामल ने रसोई-घर के द्वार पर आकर कहा--आशा, ज़रा यहाँ आना। देखो, तुम्हारे लिए कितने सुन्दर गमले लाया हूँ। तुम्हारे कसरे के सामने रखे जायेंगे। तुस यहाँ धुएँ-धक्कड़ में क्यों हलाकान होती हो। इस लड़के से कह दो, जल्दी महाराज को बुलाये। नहीं मैं कोई दूसरा आदमी रख लूंगा। महाराजों की कमी नहीं है। आखिर कब तक कोई रिआयत करे गधे को जरा भी तमौज नहीं आई। सुनता है जुगल, लिख दे आज अपने बाप को।

चूल्हे पर तवा रखा हुआ था। आशा रोटियाँ बेलने लगी थी। जुगल तवे के लिए रोटियों का इन्तजार कर रहा था। एसी हालत में भला आशा कैसे गमले देखने जाती?