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मानसरोवर


खाकर सो रहता है, लेकिन दावत मे तो अच्छे-अच्छे पकवान ही खाता है। वहां भी रूखी रोटियाँ मिले तो वह दावत में जाय ही नहीं।

'यह सच मैं नहीं जानती। एक गाढे का कुर्ता बनवा लो और एक टोपी ले लो, हजामत के लिए दो आने पैसे ऊपर से ले लो।'

जुगल ने मान करके कहा--रहने दीजिए । मैं नहीं लेता। अच्छे कपड़े पहनकर निकलूंगा तब तो आपकी याद आवेगी । सड़ियल कपड़े पहनकर तो और जी जलेगा।

'तुम बड़े स्वार्थी हो । मुफ्त के कपड़े लोगे और उसके साथ ही बढिया भी ।'

'जब यहां से जाने लगू तब आप मुझे अपना एक चित्र दीजिएगा।'

'मेरा चित्र लेकर क्या करोगे?'

'अपनी कोठरी में लगाऊँगा और नित्य देखा करूँगा। बस यही साड़ी पहनकर खिचवाना जो कल पहनी थी, और मोतियों की माला भी हो। मुझे नंगो-नंगी सूरत नहीं अच्छी लगती । आपके पास तो बहुत गहने होंगे। आप पहनती क्यों नहीं ?'

'तो तुम्हें गहने बहुत अच्छे लगते हैं ?'

'बहुत।'

लालाजी ने फिर आकर जलते हुए मन से कहा-अभी तक तुम्हारी रोटियाँ नहीं पकी ! जुगल, अगर कल से तूने अपने आप अच्छी रोटियाँ न पकाई तो मैं तुझे निकाल दूंगा।

आशा ने तुरन्त हाथ-मुँह धोया और बड़े प्रसन्न मन से लालाजी के साथ गमले देखने चली। इस समय उसकी छवि में प्रफुल्लता का रोगन था, बातों में भी जैसे शक्कर घुली हुई थी । लालाजी का सारा खिसियानापन मिट गया।

उसने गमलों को लुब्ध आँखों से देखा। उसने कहा-मैं इनमें से कोई गमला न जाने दूंगी। सब मेरे कमरे के सामने रखवाना, सब ! कितने सुन्दर पौधे हैं, वाह ! इनके हिन्दी नाम भी मुझे बतला देना।

लालाजी ने छेड़ा--सब गमले लेकर क्या करोगी? दस-पाँच पसन्द कर लो। शेष मैं बाहर रखवा दूंगा।

'जी नहीं । मैं एक भी न छोड़ूं गी । सब यहीं रखे जायेंगे।'

'बड़ी लालचिन हो तुम।'

'लालचिन सही । मैं आपको एक भी न दूंगी।'