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मानसरोवर

'यह दर्द कब से हो रहा है ?

'हो तो रहा है रात से ही लेकिन अभी कुछ कम हो गया था। अब फिर होने लगा है।'

'रह-रहकर चुभन हो जाती है।'

सेठजी एक बात सोचकर दिल ही-दिल में फूल उठे। अब वे गोलियां रंग ला रही हैं । राजवैद्यजी ने कहा भी था कि जरा सोच-समझकर इनका सेवन कीजिएगा। क्यों न हों ! खानदानी वैद्य हैं। इनका बाप बनारस के महाराज का चिकित्सक था। पुराने और परीक्षित नुस्खे हैं इनके पास ! उन्होंने कहा-तो रात से ही यह दर्द हो रहा है ? तुमने मुझसे कहा नहीं । नहीं वैद्यजी से कोई दवा मॅगवाता । '

मैने समझा था आप ही-आप अच्छा हो जायगा, मगर अब बढ़ रहा है।'

'कहाँ दर्द हो रहा है ? जरा देखू । कुछ सूजन तो नहीं है?'

सेठजी ने आशा के अचल की तरफ हाथ बढाया । आशा ने शर्माकर सिर झुका लिया। उसने कहा-यह तुम्हारी शरारत मुझे अच्छी नहीं लगती। मैं अपनी जान से भरती हूँ, तुम्हें हँसी सूझती है । जाकर कोई दवा ला दो।

सेठजी अपने पुसत्व का यह डिप्लोमा पाकर उससे कहीं ज्यादा प्रसन्न हुए, जितना रायबहादुरी पाकर होते। विजय का डंका पीटे बिना उन्हे कैसे चैन आ सकता था ? जो लोग उनके विवाह के विषय मे द्वेषमय टिप्पणियाँ कर रहे थे, उन्हें नीचा दिखाने का कितना अच्छा अवसर हाथ आया है और इतनी जल्दी ?

पहले पंडित भोलानाथ के पास गये और भाग्य ठोककर बोले-भाई, मैं तो वड़ी विपत्ति में फंस गया । कल से उनके कलेजे मे दर्द हो रहा है। कुछ बुद्धि काम नहीं करती। कहती हैं, ऐसा दर्द पहले कभी नहीं हुआ था।

भोलानाथ ने कुछ बहुत हमदर्दी न दिखाई।

सेठजी यहाँ से उठकर अपने दूसरे मित्र लाला फागमल के पास पहुंचे और उनसे भी लगभग इन्हीं शब्दों में यह शोक-संवाद कहा।

फागमल बड़ा शोहदा था । मुसकराकर बोला-मुझे तो आपकी शरारत मालूम होती है।

सेठजी को बाछे खिल गई । उन्होने कहा-मैं अपना दुख सुना रहा हूँ और तुम्हें दिल्लगी सूझती है । ज़रा भी आदमियत तुममे नहीं है।