पृष्ठ:मानसरोवर २.pdf/३०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

शुद्रा

मां और बेटी एक झोपड़ी में गांव के उस सिरे पर रहती थीं। बेटी बाग से पत्तियां बटोर लाती, मां झाड़ झोकती। यही उनको जीविका थी। सेर-दो-सेर अनाज मिल जाता था, खाकर पड़ रहती थीं। माता विधवा थी, बेटी क्वारी, घर मे और कोई आदमी न था। माँ का नाम गगा था, बेटी का गौरा ।

गजा को कई साल से यह चिन्ता लगी हुई थी कि कहीं गौरा की सगाई हो जाय, लेकिन कहीं बात पक्की न होती थी। अपने पति के मर जाने के बाद गङ्गा ने कोई दूसरा घर न किया था, न कोई दूसरा धन्धा करती थी, इससे लोगों को संदेह हो गया था कि आखिर इसका गुज़र कैसे होता है ? और लोग तो छाती फाड़ कर काम करते हैं, फिर भी पेट-भर अन्न मयस्सर नहीं होता। यह स्त्री कोई धंधा नहीं करती, फिर भी मां-बेटी आराम से रहती हैं, किसीके सामने हाथ नहीं फैलाती । इसमे कुछ-न-कुछ रहस्य है। धीरे-धीरे यह सन्देह और भी दृढ हो गया, और वह अब तक जीवित था । बिरादरी में कोई गौरा से सगाई करने पर राज़ी न होता था। शूद्रो की विरादरी बहुत छोटी होती है। दस-पांच कोस से अधिक उसका क्षेत्र नहीं होता। इसलिए एक दूसरे के गुण-दोष किसीसे छिपे नहीं रहते, न उन पर परदा हो डाला जा सकता है।

इस भ्रान्ति को शान्त करने के लिए माँ ने बेटी के साथ कई तीर्थ यात्राएं की। उड़ीसा तक हो आई, लेकिन सन्देह न मिटा । गौरा युवती थी, सुन्दरी थी, पर उसे किसी ने कुएँ पर या खेतो में हँसते-बोलते नहीं देखा। उसकी निगाह कभी ऊपर उठती ही न थी। लेकिन यह बातें भी सदेह को और पुष्ट करती थीं। अवश्य कोई- न-कोई रहस्य है। कोई युवती इतनी सती नहीं हो सकती। कुछ गुप-चुप की बात अवश्य है।

यों ही दिन गुज़रते जाते थे। बुढिया दिन-दिन चिन्ता से धुल रही थी। उधर सुन्दरी की मुख-छनि दिन-दिन निखरती जाती थी । कली खिलकर फूल हो रही थी।