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मानसरोवर

( २ )

एक दिन एक परदेशी गांव से होकर निकला। दस-बारह कोस से आ रहा था। नौकरी की खोज में कलकत्ते जा रहा था। रात हो गई। किसी कहार का घर पूछता हुआ गंगा के घर आया। गङ्गा ने उसका खूब आदर-सत्कार किया, उसके लिए गेहूँ का आटा लाई, घर से बरतन निकालकर दिये। कहार ने पकाया, खाया, लेटा, बातें होने लगीं। सगाई की चर्चा छिड़ गई। कहार जवान था, गौरा पर निगाह पड़ी, उसका रंग-ढंग देखा, उसको सलज्ज छवि आँखों में खुब गई। सगाई करने पर राजी हो गया। लौटकर घर चला गया, दो-चार गहने अपनी बहन के यहाँ से लाया ; गांव के बजाज से कपड़े लिए और दो-चार भाई-बन्दों के साथ सगाई करने आ पहुँचा । सगाई हो गई, यहीं रहने लगा। गङ्गा बेटी और दामाद को आँखों से दूर न कर सकती थी।

किन्तु दस ही पांच दिनों में मँगरू के कानों में इधर-उधर की बातें पड़ने लगी, बिरादरी ही के नहीं, अन्य जातिवाले भी उसके कान भरने लगे। ये बातें सुन-सुनकर मॅगरू पछताता था कि नाहक यहाँ फंँसा । पर गौरा को छोड़ने का खयाल करके उसका दिल काँप उठता था।

एक महीने के बाद मॅगरू अपनी बहन के गहने लौटाने गया। खाना खाने के समय उसका बहनोई उसके साथ भोजन करने बैठा। मॅगरू को कुछ संदेह हुआ, बहनोई से बोला तुम क्यों नहीं आते ?

बहनोई ने कहा- तुम खा लो, मैं फिर खा लूंगा।

मॅगरू---बात क्या है ? तुम खाने क्यों नहीं उठते ?

बहनोई--जब तक पंचाइत न होगी, मैं तुम्हारे साथ कैसे खा सकता हूँ। तुम्हारे लिए बिरादरी तो न छोड़ दूंगा। किसीसे पूछा न गूछा जाकर एक हरजाई से सगाई कर ली।

मँगरू चौके पर से उठ आया, मिर्जई पहनी और ससुराल चला आया। बहन खड़ी रोती रह गई।

उसी रात को वह किसी से कुछ कहे-सुने वगैर, गौरा को छोड़कर कहीं चला गया। गौरा नींद में मग्न थी। उसे क्या खबर थी कि वह रत्न जो मैंने इतनी तपस्या के बाद पाया है, मुझे सदा के लिए छोड़े चला जा रहा है।