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शूद्रा

( ३ )

कई साल बीत गये । मॅगरू का कुछ पता न चला। कोई पत्र तक न आया, पर गौरा वहुत प्रसन्न थी। वह मांग में सेंदुर डालती, रंग-बिरंगे के कपड़े पहनती और अधरों पर मिस्सी के धड़े जमाती । मॅगरू भजनों की एक पुरानी किताब छोड़ गया था । उसे कभी-कभी पढती और गाती । मॅगरू ने उसे हिन्दी सिखा दी थी। टटोल-- टटोलकर भजन पढ़ लेती थी।

पहले वह अकेली बैठी रहती थी। गांव की और स्त्रियों के साथ बोलते चालते उसे शर्म आती थी। उसके पास वह वस्तु न थी, जिस पर दूसरी स्त्रियां गर्व करती थीं । सभी अपने अपने पति को चरचा करती । गौरा के पति कहाँ था ? वह किसकी बातें करती ? अब उसके भी पति था। अब वह अन्य स्त्रियों के साथ इस विषय पर बातचीत करने की अधिकारिणी थी। वह भी मॅगरू की चर्चा करती, मॅगरू कितना स्नेहशील है, कितना सज्जन, कितना वीर । पति-चर्चा से उसे कभी तृप्ति ही न होती थी।

स्त्रियों पूछती-मॅगरू तुम्हे छोड़कर क्यों चले गये ?

गौरा कहती-क्या करते ? मर्द कभी ससुराल में रहता है, देश-परदेश में निकलकर चार पैसे कमाना ही तो मर्दो का काम है, नहीं तो मानमरजाद का निर्वाह कैसे हो?

जब कोई पूछता, चिट्ठी-पत्री क्यों नहीं भेजते ? तो हँसकर कहती-अपना पता ठिकाना बताते डरते हैं। जानते हैं न कि गौरा आकर सिर पर सवार हो जायगी। सच कहती हूँ, उनका पता-ठिकाना मालूम हो जाय तो यहाँ मुझसे एक दिन भी न रहा जाय । वह बहुत अच्छा करते हैं कि मेरे पास चिट्ठी-पत्री नहीं भेजते । बेचारे पर- देश मे कहां पर गिरस्ती सँभालते फिरेंगे।

एक दिन किसी सहेली ने कहा-हम न मानेंगे, तुझसे ज़रूर मॅगरू से झगड़ा हो गया, नहीं तो विना कुछ कहे-सुने क्यों चले जाते।

गौरा ने हँसकर कहा-बहन, अपने देवत्ता से भी कोई झगड़ा करता है। वह मेरे मालिक हैं, भला मैं उनसे झगा करूँगी ? जिस दिन झगड़े की नौबत आयेगी कहीं डूब मरूंगी। मुझसे कहके जाने पाते ? मैं उनके पैरों से लिपट न जातो ?