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मानसरोवर

( ४ )

एक दिन कलकत्ते से एक आदमी आकर गंगा के घर ठहरा । पास ही के किसी गाँव में अपना घर बताया । कलकत्ते में वह मॅगरू के पड़ोस ही में रहता था। मैंगरू ने उससे गौरा को अपने साथ लाने को कहा था। दो साड़ियाँ और राह-खर्च के लिए रुपए भी भेजे थे। गौरा फूली न समाई । बूढे ब्राह्मण के साथ चलने को तैयार हो गई। चलते वक्त वह गाँव को सब औरतों से गले मिली । गंगा उसे स्टेशन तक पहुँचाने गई । सब कहते थे, बिचारी लड़की के भाग जाग गये, नहीं तो यहाँ कुढ-कुढ- कर मर जाती।

रास्ते-भर गौरा सोचती जाती थी-न-जाने वह कैसे हो गये होंगे । मूछे अच्छी तरह निकल आई होगी। परदेश में आदमी सुख से रहता है । देह भर आई होगी । बाबू साहब हो गये होंगे । मैं पहले दो-तीन दिन उनसे बोलूंगी हो नहीं। फिर पूछूँगी तुम मुझे छोड़कर क्यों चले गये ? अगर किसीने मेरे बारे में कुछ बुरा-भला कहा ही था, तो तुमने उसका विश्वास क्यों कर लिया ? तुम अपनी आँखो से न देखकर दूसरों के कहने पर क्यों गये ? मैं भली हूँ या बुरी हूँ, हूँ तो तुम्हारी, तुमने मुझे इतने दिनो रुलाया क्यो ? तुम्हारे बारे में अगर इसी तरह कोई मुझसे कहता तो क्या मैं तुमको छोड़ देती ? जव तुमने मेरी बाह पकड़ ली तो तुम मेरे हो गये। फिर तुममे लाख ऐब हों मेरी बला से, चाहे तुम तुर्क ही क्यों न हो जाओ, मैं तुम्हें छोड़ नहीं सकती, तुम क्यों मुझे छोड़कर भागे ? क्या समझते थे भागना सहज है ? आखिर झक मारकर बुलाया कि नहीं ? कैसे न बुलाते ? मैंने तो तुम्हारे ऊपर दया की कि चली आई, नहीं कह देतो कि मैं ऐसे निर्दयी के पास नहीं जाती, तो तुम आप दौड़े आते। तप करने से तो देवता भी मिल जाते हैं, आकर सामने खड़े हो जाते हैं , तुम कैसे न आते ! वह बार-बार उद्विग्न हो-होकर बूढ़े ब्राह्मण से पूछती, अब कितनी दूर है। धरती के ओर पर रहते हैं क्या ? और भी कितनी ही बातें वह पूछना चाहती थी, लेकिन संकोच-वश न पूछ सकैती थी। मन- ही-मन अनुमान करके अपने को संतुष्ट कर लेती थी। उनका मकान बड़ा-सा होगा, शहर मे लोग पक्के घरों मे रहते हैं। जब उनका साहब इतना मानता है तो नौकर भी होगा। मैं नौकर को भगा दूंगी। मैं दिन-भर पड़े-पड़े क्या किया करूँगी ?

बीच-बीच में उसे घर की याद भी आ जाती थी ! बिचारी अम्माँ रोती होंगी।