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शूद्रा

( ६ )

अब तक गौरा को अपने गांव लौटने की आशा थी। कभी-न-कभी वह अपने पति को वहाँ अवश्य खींच ले जायगी। लेकिन जहाज़ पर बैठकर उसे ऐसा मालूम हुआ कि अब फिर माता को न देखूँगी, फिर गाँव के दर्शन न होंगे, देश से सदा के लिऐ नाता टूट रहा है । वह देर तक घाट पर खड़ी रोती रही, जहाज और समुद्र देखकर उसे भय हो रहा था। हृदय दहला जाता था।

शाम को जहाज़ खुला। उस समय गौरा का हृदय एक अलक्ष्य भय से चंचल हो उठा। थोड़ी देर के लिए नैराश्य ने उस पर अपना आतङ्क जमा लिया। न-जाने किस देश जा रही हूँ, उनसे वहाँ भेंट होगी या नहीं। उन्हे कहाँ खोजती फिरूँगी, कोई पता-ठिकाना भी तो नहीं मालूम । बार-बार पछताती थी कि एक दिन पहिले क्यों न चली आई । कलकत्ते में भेंट हो जाती तो मैं उन्हे वहाँ कभी न जाने देती।

जहाज पर और भी कितने ही मुसाफिर थे, कुछ स्त्रियां भी थीं। उनमें बराबर गाली-गलौज होती रहती थी, इसलिए गौरा को उनसे बातें करने की इच्छा न होती थी। केवल एक स्त्री उदास दिखाई देती थी। रंग-ढंग से वह किसी भले घर की स्त्री मालूम होती थी । गौरा ने उससे पूछा- तुम कहाँ जातो हो बहन ?

उस स्त्री की बड़ी-बड़ी आँखें सजल हो गई । बोली, कहाँ बताऊँ बहिन, कहाँ जा रही हूँ । जहाँ भाग्य लिये जाता है, वहीं जा रही हूँ। तुम कहाँ जातो हो ?

गौरा-मैं तो अपने मालिक के पास जा रही हूँ। जहां यह जहाज रुकेगा, वहीं वह नौकर हैं। मैं कल आ जाती तो उनसे कलकत्ते में भेंट हो जाती। आने मे देर हो गई। क्या जानती थी कि वह इतनी दूर चले जायेंगे, नहीं क्यों देर करती।

स्त्री---अरे बहन, कहीं तुम्हें भी तो कोई बहकाकर नहीं लाया है ? तुम घर से किसके साथ आई हो ?

गौरा-मेरे मालिक ने तो कलकत्ता से आदमी भेजकर मुझे बुलाया था।

स्त्री-वह आदमी तुम्हारा जान-पहचान का था ?

गौरा-नहीं, उसी तरफ का एक बूढा ब्राह्मण था।

स्त्री-वह लम्बा-सा, दुबला-पतला लकलक बुड्ढा, जिसकी एक आँख में फूली पड़ी हुई है ?