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मानसरोवर

गौरा-हा, हाँ वही, क्या तुम उसे जानती हो ?

स्त्री--उसी दुष्ट ने तो मेरा सर्वनाश किया है। ईश्वर करे, उसकी सातों पुस्त नरक भोगें, उसका निवंश हो जाय, कोई पानी देनेवाला न रहे, कोढी होकर मरे । मैं अपना वृत्तान्त सुनाऊँ तो तुम समझोगी झूठी है। किसी को विश्वास न आयेगा । क्या कहूँ, बस यही समझ लो कि इसके कारन मैं न घर की रह गई, न घाट की। किसीको मुंह नहीं दिखा सकती। मगर जान तो बड़ी प्यारी होती है। मिरिच के देश जा रही हूँ कि वहाँ मेहनत मजूरी करके जीवन के दिन काहूँ।

गौरा के प्राण नहों मे समा गये। मालूम हुआ जहाज़ अथाह जल में डूबा जा रहा है । समझ गई कि बूढे ब्राह्मण ने दगा की । अपने गांव में सुना करती थी कि गरीब लोग मिरिच में भरती होने के लिए जाया करते हैं। मगर जो वहाँ जाता है, फिर नहीं लौटता । हा भगवान् , तुमने मुझे किस पाप का यह दण्ड दिया ? बोली- यह सब क्यों लोगों को इस तरह छलकर मिरिच भेजते हैं ?

स्त्री-रुपये के लोभ से, और किस लिए । सुनती हूँ आदमी पीछे इन सभों को । कुछ रुपये मिलते हैं।

गौरा-तो बहन वहां हमें क्या करना पड़ेगा ?

स्त्री--मजूरी।

गौरा सोचने लगी अब क्या करूं। वह आशा-नौका, जिस पर बैठी हुई वह चली जा रही थी, टूट गई थी, और अब समुद्र को लहरों के सिवा उसकी रक्षा करनेवाला कोई न था। जिस आधार पर उसने अपना जीवन-भवन बनाया था, वह जलमग्न हो गया। अब उसके लिए जल के सिवा और कहाँ आश्रय है। उसको अपनी माता की, अपने घर की, अपने गांव की सहेलियों की याद आई और ऐसी घोर मर्म-वेदना होने लगी, मानो कोई सर्प अन्तस्तल में बैठा हुआ बार-बार डस रहा हो । भगवान् ! अगर मुझे यही यातना देनी थी, तो तुमने मुझे जन्म ही क्यों दिया था। तुम्हे दुखिया पर दया नहीं आती ! जो पिसे हुए हैं, उन्हीं को पीसते हो । करुण स्वर से बोली-तो अब क्या करना होगा बहन ?

स्त्री-यह तो वहां पहुंचकर मालूम होगा। अगर मजूरी ही करनी पड़े तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर किसी ने कुदृष्टि से देखा तो मैंने निश्चय कर लिया है कि या तो उसी के प्राण ले लूंगी या अपने ही प्राण दे दूंगी !