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शूद्रा

यह कहते-कहते उसे अपना वृत्तान्त सुनाने को वह उत्कट इच्छा हुई, जो दुखियों को हुआ करती है। बोली--मैं बड़े घर की बेटी और उससे भी बड़े घर की बहू हूँ पर अभागिनी । विवाह के तीसरे ही साल पतिदेव को देहान्त हो गया। चित्त की कुछ ऐसी दशा हो गई कि नित्य मालूम होता, वह मुझे बुला रहे हैं। पहले तो आँख झपकते ही उनकी मूर्ति सामने आ जाती थी, लेकिन फिर तो यह दशा हो गई कि जाग्रत दशा मे भी रह रहकर उनके दर्शन होने लगे। बस यही जान पड़ता कि वह साक्षात् खड़े बुला रहे हैं। किसी से शर्म के मारे कहती न थी, पर मन में यह शङ्का होती थी कि जब उनका देहावसान हो गया है तो वह मुझे दिखाई कैसे देते हैं ? मैं इसे भ्रान्ति समझकर चित्त को शान्त न कर सकती थी। मन कहता था जो वस्तु प्रत्यक्ष दिखाई देती है, वह मिल क्यों नहीं सकती। केवल वह ज्ञान चाहिए। साधु- महात्माओं के सिवा ज्ञान और कौन दे सकता है ? मेरा तो अब भी विश्वास है कि अभी ऐसी क्रियाएँ हैं, जिनसे हम मरे हुए प्राणियों से बात-चीत कर सकते हैं, उनको स्थूल रूप में देख सकते हैं। महात्माओं की खोज में रहने लगी। मेरे यहाँ अकसर साधु-सन्त आते थे, उनसे एकान्त में इस विषय में बातें किया करती थी, पर वे लोग सदुपदेश देकर मुझे टाल देते थे। मुझे सदुपदेशों की ज़रूरत न थी। मैं वैधव्य-धर्म खूब जानती थी। मैं तो वह ज्ञान चाहती थी जो जीवन और मरण के बीच का परदा उठा दे। तीन साल तक मैं इसी खेल में लगी रही। दो महीने होते हैं, वही बूढा ब्राह्मण सन्यासी बना हुआ मेरे यहाँ जा पहुंचा। मैंने इससे भी वही भिक्षा मांगी। इस धूर्त ने कुछ ऐसा मायाजाल फैलाया कि मैं आँखें रहते हुए भी फंस गई । अब सोचती हूँ तो अपने ऊपर आश्चर्य होता है कि मुझे उसकी बातों पर इतना विश्वास क्यों हुआ। मैं पति-दर्शन के लिए सब कुछ झेलने को, सब कुछ करने को तैयार थी, इसने मुझे रात को अपने पास बुलाया। मैं घरवालों से पड़ोसिन के घर जाने का यहाना करके इसके पास गई। एक पीपल से इसकी धूई जल रहो थी। उस विमल चादनी मे यह धूर्त जटाधारी ज्ञान और योग का देवता-सा मालूम होता था। मैं आकर धूई के पास खड़ी हो गई। उस समय यदि बाबाजी मुझे आग में कूद पड़ने की आज्ञा देते तो मैं तुरन्त कूद पङती । इसने मुझे बड़े प्रेम से बैठाया और मेरे सिर पर हाथ रखकर न जाने क्या कर दिय कि मैं बेसुध हो गई ; फिर मुझे कुछ नहीं: मालूम कि मैं कहाँ गई, क्या हुआ । जव मुरो होश आया तो मैं रेल पर सवार थी।

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