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मानसरोवर

गौरा- तुमने उस बूढे ब्राह्मण से मुझे लाने को नहीं कहा था ?

मगरू-कह तो रहा हूँ मैं सात साल से यहाँ हूँ। और मरने पर ही यहाँ से जाऊँगा। भला तुम्हें क्यों बुलाता ।

गौरा को मॅगरू से इस निष्ठुरता की आशा न थी। उसने सोचा, अगर यह सत्य भी हो कि इन्होंने मुझे नहीं बुलाया, तो भी इन्हें मेरा यो अपमान न करना चाहिए था। क्या यह समझते हैं कि मैं इनकी रोटियों पर आई है। यह तो इतने ओछे स्वभाव के न थे । शायद दरजा पाकर इन्हे मद हो गया है। नारि-सुलभ अभिमान से गरदन उठाकर उसने कहा-तुम्हारी इच्छा हो तो अब से लौट जाऊँ। तुम्हारे ऊपर भार बनना नहीं चाहती।

मॅगरू कुछ लज्जित होकर बोला-अब तुम यहाँ से लौट नहीं सकती गौरा । यहाँ आकर विरला ही कोई लौटता है:

यह कहकर वह कुछ देर चिन्ता में मग्न खड़ा रहा, मानो संकट में पड़ा हुआ हो कि क्या करना चाहिए। उसकी कठोर सुखाकृति पर दीनता का रंग झलक पड़ा। तब कातर स्वर से बोला-जब आ गई हो तो रहो। जैसी कुछ पड़ेगी, देखी जायगी।

गौरा-जहाज़ फिर कब लौटेगा ?

मॅगरू-तुम यहाँ से पाँच बरस के पहले नहीं जा सकती ।

गौरा-क्यों, क्या कुछ जबरदस्ती है।

मँगरू-हाँ, यहां का यही हुक्म है।

गौरा-तो फिर मैं अलग मजूरी करके अपना पेट पालूंँगी।

मँगरू ने सजल नेत्र होकर कहा-~-जबतक में जीता हूँ, तुम मुझसे अलग नहीं रह सकती।

गौरा-तुम्हारे ऊपर भार बनकर न रहूंगी।

मँगरू--मैं तुम्हे भार नहीं समझता गौरा, लेकिन यह जगह तुम-जैसी देवियों के रहने लायक नहीं है, नहीं तो अब तक मैंने तुम्हें कब का बुला लिया होता। वहीं बूढ़ा आदमी जिसने तुम्हे बहकाया, मुझे घर से आते समय पटने में मिल गया और झांसे देकर मुझे यहाँ भरती करा दिया। तबसे यहीं पड़ा हुआ हूँ। चलो, मेरे घर में रहो ; वहाँ बातें होंगी। यह दूसरी औरत कौन है ?

गौरा- यह मेरी सखी है, इन्हे भी वही बूढा बहका लाया है।