पृष्ठ:मानसरोवर २.pdf/३१४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३२९
शूद्रा

मगरू--यह तो किसी कोठी में जायेगी ? इन सब आदमियों को बांट होगी। जिसके हिस्से में जितने आदमी आयेंगे, उतने हर एक कोठी में भेजे जायेंगे।

गौरा-यह तो मेरे साथ रहना चाहती हैं ।

मॅगरू-अच्छो बात है, उन्हे भी लेतो चलो।

यात्रियों के नाम तो लिखे ही जा चुके थे । मँगरू ने उन्हे एक चपरासी को सौपकर दोनों औरतों के साथ घर की राह ली। दोनों ओर सघन वृक्षों की कतारें थीं । जहाँ तक निगाह जाती थी, ऊख-ही ऊख दिखाई देती थी। समुद्र की ओर से शीतल, निर्मल वायु के झोंके आ रहे थे। अत्यन्त सुरम्ब दृश्य था। पर मॅगरू की निगाह उस ओर न थी। वह भूमि की ओर ताकता, सिर झुकाये, सन्दिग्ध चाल से चला जा रहा था । मानो मन-ही-मन कोई समस्या हल कर रहा है।

थोड़ी ही दूर गये थे कि सामने से दो आदमी आते हुए दिखाई दिये। समीप आकर दोनों रुक गये और एक ने हँसकर कहा-मॅगरू, इनमें से एक हमारी है।

दूसरा वोला-और दूसरी मेरी।

मॅगरू का चेहरा तमतमा उठा था । भीषण क्रोध से कांपता हुआ वोला- यह दोनों मेरे घर की औरते हैं। समझ गये ?

इन दोनों ने ज़ोर से कहकहा मारा और एक ने गौरा के समोप आकर उसका हाथ पकड़ने की चेष्टा करके कहा- यह मेरी है। चाहे तुम्हारे घर की हो, चाहे बाहर की । वचा हमें चकमा देते हो।

मॅगरू-कासिम, इन्हे मत छेड़ो, नहीं तो अच्छा न होगा । मैने कह दिया, मेरे घर की औरतें हैं।

मँगरू की आंखों से अग्नि-ज्वाला-सी निकल रही थी । वह दोनों उस के मुख का भाव देखकर कुछ सहम गये और समझ लेने की धमकी देकर आगे वढे । किन्तु मैंगरू के अधिकार-क्षेत्र से बाहर पहुँचते ही एक ने पीछे से ललकारकर कहा-देखें, कहाँ लेके जाते हो।

मंगरू ने उधर ध्यान न दिया। जरा कदम बढाकर चलने लगा, जैसे संध्या के एकान्त में हम कनिस्तान के पास से गुजरते हैं, हमे पग-पग पर यह शंका होती है कि कोई शब्द कान मे न पड़ जाय, कोई सामने आकर खड़ा न हो जाय, कोई जमीन के नीचे से कफन ओढे उठ न खड़ा हो।