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शूद्रा

मॅगरू ने बैठे-बैठे कहा-देखो नब्बी, तुम भी हमारे देश के आदमी हो । कोई मौका पड़े तो हमारी मदद करोगे न ? जाकर साहब से कह दो, मॅगरू कहीं गया है। बहुत होगा जुरबाना कर देंगे।

नब्बी-न भैया, गुस्से मे भरा बैठा है, पिये हुए है, कहीं मार चले तो वस.. यहाँ चमड़ा इतना मज़बूत नहीं है।

मॅगरू-अच्छा तो जाकर कह दो, नहीं आता।

नब्बी -मुझे क्या, जाकर कह दूंगा, पर तुम्हारो खैरियत नहीं है।

मैंगरू ने जरा देर सोचकर लकड़ी उठाई और नब्बी के साथ साहब के बंगले चला । यह वही साहब थे, जिनसे आज मॅगरू से भेंट हुई थी । मॅगरू जानता था कि साहब से विगाड़ करके यहां एक क्षण भी निर्वाह नहीं हो सकता । जाकर साहब के सामने खड़ा हो गया । साहब ने दूर ही से डाटा, वह औरत कहाँ है ? तुम उसे अपने घर में क्यों रखा है?

मॅगरू-हजूर वह मेरी ब्याहता औरत है।

साहब-अच्छा, वह दूसरा कौन है ?

मँगरू-वह मेरी सगी बहन है हुजूर ।

साहब--हम कुछ नही जानता। तुमको लाना पड़ेगा। दो में से कोई, दो में से कोई।

मगरू पैरों पर गिर पड़ा और रो-रोकर अपनी सारो रामकहानी सुना गया। पर साहब ज़रा भी न पसीजे । अन्त में वह बोला- हुजूर, वह दूसरी औरतों की तरह नहीं हैं। अगर यहाँ आ भी गई, तो प्राण दे देगी।

साहब ने हँसकर कहा--ओ ! जान देना इतना आसान नहीं है।

नब्बी--मॅगरू अपनी दांव रोते क्यों हो? तुम हमारे घर में नहीं घुसे थे ? अब भी जव घात पाते हो जा पहुंचते हो, अब रोते क्यों हो ?

एजेण्ट-ओ, यह बदमाश है । अभी जाकर लाओ, नहीं तो हम तुमको हण्टरों से पीटेगा।

मॅगरू-हजूर जितना चाहें पीट लें। मगर मुझसे वह काम करने को न कहें, जो मैं जीते-जी नहीं कर सकता।

एजेण्ट-हम एक सौ हण्टर मारेगा।