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खुदाई फौजदार

( ४ )

थाना यहाँ से पांच मील पर था। कस्बे से बाहर निकलते ही पहाड़ों का पथ- रीला सन्नाटा था, जिसके दामन में हरा-भरा मैदान था और इसी मैदान के बीच मे से लाल मोरम की सड़क चक्कर खाती हुई लाल साँप-जैसी निकल गई थी।

हेड ने सेठजी से पूछा- यह कहाँ तक सही है सेठजी कि आज से पचीस साल पहले आपके बाप केवल लोटा-डोर लेकर यहाँ खाली हाथ आये थे ?

सेठजी ने गर्व करते हए कहा-बिलकुल सही है। मेरे पास कुल तीन रुपये 'थे। उसी से आटे-दाल की दूकान खोली थी। तकदीर का खेल है, भगवान् की दया चाहिए, आदमी के बनते-बिगड़ते देर नहीं लगती , लेकिन मैंने कभी पैसे को दांतों से नहीं पकड़ा । यथाशक्ति धर्म का पालन करता गया । धन की शोभा धर्म ही से है, नहीं धन से कोई फायदा नहीं।

'आप बिलकुल ठीक कहते हैं सेठजी । आपकी सूरत बनाकर पूजना चाहिए । तीन रुपये से तीन लाख कमा लेना मामूली काम नहीं है।'

'आधी रात तक सिर उठाने की फुरसत नहीं मिलती, खां साहब ।'

'आपको तो यह सब कारोबार जज्जाल-सा लगता होगा?'

'जजाल तो है ही , मगर भगवान् की ऐसी माया है कि आदमी सब कुछ समझ कर भी इसमें फँस जाता है और सारी उन्न फंसा रहता है। मौत आ जाती है, तभी छुट्टी मिलती है। बस, यही अभिलाषा है कि कुछ यादगार छोड़ जाऊँ ।'

'आपके कोई औलाद हुई ही नहीं ?'

'भाग्य में न थी खां साहब, और क्या कहूँ । जिनके घर में भूनी भांग नहीं है, उनके यहां घास-फूस की तरह बच्चे-ही-बच्चे देख लो , जिन्हे भगवान् ने खाने को दिया है, वे सन्तान का मुंह देखने को तरसते हैं।'

'आप विलकुल ठीक कहते हैं सेठजी । ज़िन्दगी का मज़ा सन्तान से है । जिसके आगे अंधेरा है, उसके लिए धन-दौलत किस काम का।'

'ईश्वर की यही इच्छा है तो आदमो क्या करे ! मेरा बस चलता, तो मायाजाल से निकल भागता खां साहब, एक क्षण-भर यहाँ न रहता, कहीं तीर्थस्थान में बैठकर भगवान् का भजन करता , मगर करूँ क्या, मायाजाल तोड़े नहीं टूटता।'