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मानसरोवर


जाय, उसे गनीमत समझो। मैंने तो वह तपस्या त्याग दी । अब तो आये दिन जलसे होते हैं, कभी दोस्तों को दावत है, कभी दरिया की सैर, कभी गाना-बजाना, कभी शराब के दौर । मैंने कहा, लाओ कुछ दिन यह बहार भी देख लूँ । हसरत क्यों दिल में रह जाय । आदमी संसार में कुछ भोगने के लिए आता है, यही ज़िन्दगी के मजे हैं। जिसने यह मजे नहीं चखे, उसका जीना वृथा है। बस दोस्तों की मजलिस हो, बगल मे माशूक हो, और हाथ में प्याला हो, , इसके सिवा मुझे और कुछ न चाहिए।

उसने आलमारी खोलकर एक बोतल निकाली और दो गिलासो में शराब ढालकर बोला- यह मेरी सेहत का जाम है। इन्कार न करना । मैं तुम्हारी सेहत का जाम पीता हूँ।

दयाकृष्ण को कभी शराब पीने का अवसर न मिला था। वह इतना धर्मात्मा तो न था कि शराब पीना पाप समझता, हां, उसे दुर्व्यसन समझता था । गन्ध ही से उसका जी मालिश करने लगा। उसे भय हुआ कि वह शराब की घूँट चाहे मुंँह में ले ले, उसे कण्ठ के नीचे नहीं उतार सकता। उसने प्याले को शिष्टाचार के तौर पर हाथ में ले लिया, फिर उसे ज्यों-का-त्यों मेज़ पर रखकर बोला, तुम जानते हो, मैंने कभी नहीं पी। इस समय मुझे क्षमा करो। दस-पांच दिन मे यह फन भी सीख जाऊँगा , मगर यह तो बताओ, अपना कारोबार भी कुछ देखते हो, या इसी में पड़े रहते हो?

सिंगार ने अरुचि से मुंह बनाकर कहा-ओह, क्या ज़िक्र तुमने छेड़ दिया यार, कारोबार के पीछे इस छोटी-सी ज़िन्दगी को तबाह नहीं कर सकता। न कोई साथ लाया है, न साथ ले जायगा । पापा ने मर-मरकर धन सञ्चय किया । क्या हाथ लगा? पचास तक पहुँचते-पहुंचते चल वसे । उनकी आत्मा अब भी ससार के सुखों के लिए तरस रही होगी। धन छोड़कर मरने से फाकेमस्त रहना कहीं अच्छा है। धन की चिन्ता तो नहीं सताती, यह हाय तो नहीं होती कि मेरे बाद क्या होगा। तुमने गिलास मेज़ पर रख दिया ? ज़रा पियो, आँखें खुल जायगी। दिल हरा हो जायगा । और लोग सोडा और बरफ मिलाते हैं, मैं तो खालिस पीता हूँ । इच्छा हो, तो तुम्हारे लिए बरफ मँगाऊँ ?

दयाकृष्ण ने फिर क्षमा मांँगी; मगर सिगार गिलास-पर-गिलास पीता गया। उसकी