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वेश्या


आंखें लाला-लाल निकल आई, ऊल-ज़लूल बकने लगा, खूब डींगें मारी, फिर बेसुरे राग में एक बाज़ारी गीत गाने लगा। अन्त में उसी कुरसी पर पड़ा पड़ा बेसुध हो गया।

( २ )

सहसा पीछे का परदा हटा और लीला ने उसे इशारे से बुलाया। दयाकृष्ण की धम- नियों में शतगुण वेग से रक्त दौड़ने लगा । उसको सङ्कोचमय, भीरु प्रकृति भीतर से जितनी हो रूयाशक्त थी, बाहर से उतनी हो विरक्त । सुन्दरियों के सम्मुख आकर वह स्वयं अवाक हो जाता था, उसके कपोलों पर लज्जा की लाली दौड़ जाती थी और आँखें झुक जाती थीं , लेकिन मन उनके चरणों पर लोटकर अपने-आपको समर्पित कर देने के लिए विकल हो जाता था । मित्रगण उसे बूढ़े वावा कहा करते थे। स्त्रियाँ उसे अरसिक समझकर उससे उदासीन रहती थीं। किसी युवती के साथ लङ्का तक रेल में एकान्त-यात्रा करके भी वह उससे एक शब्द भी बोलने का साहस न करता। हां, यदि युवती स्वय उसे छेड़ती, तो वह अपने प्राण तक उसकी भेंट कर देता। उसके इस सोचमय, अवरुद्ध जीवन में लोला ही एक युवती थी, जिसने उसके मन को समझा था और उससे सवाक् सहृदयता का व्यवहार किया था। तभी से दयाकृष्ण मन से उसका उपासक हो गया था। उसके अनुभव-शून्य हृदय में लीला नारी-जाति का सबसे सुन्दर आदर्श थी। उसकी प्यासी आत्मा को शर्बत या लेमनेड की उतनी इच्छा न थी, जितना ठण्डे, मोठे पानी की। लीला में रुप है, लावण्य है, सुकुमारता है, इन बातों की ओर उसका ध्यान न था । उससे ज्यादा रूपवती, लावण्यमयी और सुकुमार युवतियां उसने पार्को में देखी थीं । लीला में सहृदयता है, विचार है, दया है, इन्हीं तत्त्वों की ओर उसका आकर्षण था। उसकी रसिकता में आत्म-समर्पण के सिवा और कोई भाव न था । लीला के किसी आदेश का पालन करना उसकी सबसे बड़ी कामना थी, उसकी आत्मा की तृप्ति के लिए इतना काफी था। उसने काँपते हार्थों से परदा उठाया और अन्दर जाकर खड़ा हो गया और विस्मयभरी आँखों से उसे देखने लगा। उसने लीला को यहाँ न देखा होता, तो पहचान भी न सकता। वह रूप, यौवन और विकास की देवी इस तरह मुरझा गई थी, जैसे किसीने उसके प्राणों को चूसकर निकाल लिया हो । करुण स्वर में बोला - यह तुम्हारा क्या हाल है लीला | बीमार हो क्या ? मुझे सूचना तक न दी।

लीला मुसकिराकर बोली-तुमसे मतलन ! मैं बीमार हूँ या अच्छी हूँ, तुम्हारी