पृष्ठ:मानसरोवर २.pdf/४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४२
मानसरोवर


इस नये रंग में आनेवाला आदमी नहीं है। ऐसे सात्विकजनों के लिए उसके यहाँ स्थान न था। वहाँ तो रँगीले, रसिया, अय्याश, बिगड़े दिलो ही की चाह थी। हाँ, लीला को हमेशा उसको याद आती रहती थी।

मगर दयाकृष्ण के स्वभाव में अब वह सयम नहीं है। विलासिता का जादू उस पर भी चलता हुआ मालम होता है । माधुरी के घर उसका आना-जाना भी शुरू हो गया है। वह सिंगारसिंह का मित्र नहीं रहा, प्रतिद्वन्द्वी हो गया है। दोनों एक हो प्रतिमा के उपासक हैं, मगर उनकी उपासना में अन्तर है । सिंगार की दृष्टि मे माधुरी केवल विलास की एक वस्तु है, केवल विनोद का एक यन्त्र। दयाकृष्ण विनय की मूर्ति है जो माधुरी की सेवा में ही प्रसन्न है। सिगार माधुरी के हास-विलास को अपना ज़रखरीद हक समझता है। दयाकृष्ण इसी में संतुष्ट है कि माधुरी उसकी सेवाओं को स्वीकार करती है। माधुरी की ओर से ज़रा भी अरुचि देखकर वह उसी तरह बिगड़ जायगा जैसे अपनी प्यारी घोडी की मुंँहजोरी पर। दयाकृष्ण अपने को उसको कृपादृष्टि के योग्य ही नहीं समझता। सिंगार जो कुछ माधुरी को देता है,, गर्व-भरे आत्मा-प्रदर्शन के साथ, मानो उस पर कोई एहसान कर रहा हो। दयाकृष्ण के पास देने को है ही क्या, पर वह जो कुछ भेंट करता है, वह ऐसी श्रद्धा से, मानो देवता को फूल चढाता हो । सिंगार का आसक्त मन माधुरी को अपने पिंजरे मे बन्द रखना चाहता है, जिसमें उस पर किसी की निगाह न पड़े। दयाकृष्ण निर्लिप्त भाव से उसकी स्वच्छन्द क्रीड़ा का आनन्द उठाता है । माधुरी को अब तक जितने आदमियों से साविका पड़ा था, वे सब सिंगारसिह की ही भांँति कामुक, ईर्ष्यालु, दम्भी और कोमल भावों से शून्य थे, रूप को भोगने की वस्तु समझनेवाले । दयाकृष्ण उन सबोंसे अलग था, सहृदय, भद्र और सेवाशील, मानो उस पर अपनी आत्मा का समर्पण कर देना चाहता हो । माधुरी को अब अपने जीवन । मे कोई ऐसा पदार्थ मिल गया है, जिसे वह बडी एहतियात से सँभालकर रखना चाहती है। जड़ाऊ गहने अब उसको आँखो मे उतने मूल्यवान् नहीं रहे, जितनी यह फकीर की दी हुई ताबीज़ । जड़ाऊ गहने हमेशा मिलेंगे, यह तावीज़ खो गई तो फिर शायद ही कभी हाथ आये । जड़ाऊ गहने केवल उसकी विलास-प्रवृत्ति को उत्तेचित करते हैं; पर इस तावीज़ मे तो कोई दैवी शक्ति है, जो न-जाने कैसे उसमे सदनुराग और परिष्कार-भावना को जगाती है। दयाकृष्ण कभी प्रेम-प्रदर्शन नहीं करता, अपनी‌