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वेश्या

वह तोते के पिजरे के पास जाकर उसे पुचकारने का बहाना करने लगी। मन में - जो एक दाह उठ रहा था, उसे कैसे शान्त करे।

दयाकृष्ण ने तिरस्कार-भरे स्वर में कहा-मैं लीला का आशिक नहीं हूँ माधुरी, “उस देवी को कलकित न करो। मैं आज तुमसे शपथ खाकर कहता हूँ कि मैंने कभी उसे इस निगाह से नहीं देखा। उसके प्रति मेरा वहीं भाव था, जो अपने किसी आत्मीय को दुख में देखकर हर एक मनुष्य के मन में आता है ।

'किसी से प्रेम करना तो पाप नहीं है, तुम व्यर्थ मे अपनी और लीला की सफाई दे रहे हो।

'मैं नहीं चाहता कि लीला पर किसी तरह का आक्षेप किया जाय।'

'अच्छा साहब, लीजिए लीला का नाम न लूँगी। मैंने मान लिया, वह सती हैं, सावी हैं और केवल उनकी आज्ञा से • ...'

दयाकृष्ण ने बात काटी--- उनकी कोई आज्ञा नहीं थी।

'ओ हो, तुम तो जबान पकड़ते हो कृष्ण । क्षमा करो, उनकी आज्ञा से नहीं, तुम अपनी इच्छा से आये थे। अब तो राजी हुए। अव यह बताओ, आगे तुम्हारे क्या इरादे हैं ? मैं वचन तो दे दूँगो , मगर अपने संस्कारों को नहीं बदल सकती। मेरा मन दुर्बल है । मेरा सतीत्व कव का नष्ट हो चुका है। अन्य मूल्यवान् पदार्थों की ही तरह रूप और यौवन की रक्षा भी बलवान् हाथो से हो सकती है। मैं तुमसे पूछती हूँ, तुम मुझे अपनी शरण में लेने पर तैयार हो ? तुम्हारा आश्रय पाकर तुम्हारे प्रेम की शक्ति से, मुझे विश्वास है, मै जीवन के सारे प्रलोभनों का सामना कर सकती हूँ। मै इस सोने के महल को ठुकरा दूंगी , लेकिन इसके बदले मुझे किसी हरे वृक्ष की छांह तो मिलनी चाहिए। वह छोह तुम मुझे दोगे ? अगर नहीं दे सकते, तो मुझे छोड़ दो। मैं अपने हाल मे मगन हूँ। मैं वादा करती हूँ, सिंगारसिंह से मैं कोई सम्बन्ध न रखूंँगी। वह मुझे धेरैगा, रोयेगा , सम्भव है, गुण्डों से मेरा अपमान कराये, आतंक दिखाये ; लेकिन मैं सब कुछ झेल लूंगी, तुम्हारी खातिर से ......।'

आगे और कुछ न कहकर वह तृष्णा भरी, लेकिन उसके साथ ही निरपेक्ष नेत्रों से दयाकृष्ण की और देखने लगी, जैसे दूकानदार गाहक को बुलाता तो है; पर साथ ही यह भी दिखाना चाहता है कि उसे उसकी परवाह नहीं है।

दयाकृष्ण क्या जवाब दे ? सघर्षमय संसार में उसने अभी केवल एक कदम‌