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मानसरोवर


'टिका पाया है। इधर वह अंगुल-भर जगह भी उससे छिन गई है। शायद जोर मारकर वह फिर वह स्थान पा जाय , लेकिन वहाँ बैठने की जगह नहीं और एक दूसरे प्राणी को लेकर तो वह खड़ा भी नहीं रह सकता। अगर मान लिया जाय कि अदम्य उद्योग से दोनो के लिए स्थान निकाल लेगा, तो आत्म-सम्मान कहाँ ले जाय ? संसार क्या कहेगा ! लीला फिर क्या उसका मुंह देखना चाहेगी, सिगार से वह फिर आंखें मिला सकेगा। यह भी छोड़ो । लीला अंगर उसे पतित समझती है, समझे; सिंगार अगर उससे जलता है जले, उसे इसकी परवाह नहीं है। लेकिन अपने मन को क्या करे ? विश्वास उसके अन्दर आकर जाल में फंसे पक्षी की भांति फड़फड़ाकर निकल भागता है। कुलीना अपने साथ विश्वास का वरदान लिये आती है ! उसके साहचर्य में हमें कभी सदेह नहीं होता। वहाँ सदेह के लिए प्रत्यक्ष प्रमाण चाहिए। कुत्सिता सन्देह का संस्कार लिये आती है। वहाँ विश्वास के लिए प्रत्यक्ष-अत्यन्त प्रत्यक्ष -- प्रमाण की जरूरत है। उसने नम्रता से कहा- तुम जानती हो, मेरी क्या हालत है ?

'हाँ, खूब जानती हूँ।'

'और उस हालत में तुम प्रसन्न रह सकोगी?'

'तुम ऐसा प्रश्न क्यों करते हो कृष्ण, मुझे दुख होता है । तुम्हारे मन मे जो सन्देह है, वह में जानती हूं, समझती हूँ। मुझे भ्रम हुआ था कि तुमने भी मुझे जान लिया है, अव मालम हुआ, मैं धोखे में थी।'

वह उठकर वहाँ से जाने लगो । दयाकृष्ण ने उसका हाथ पकड़ लिया और प्रार्थी- भाव से बोला-तुम मेरे साथ अन्याय कर रही हो माधुरी ! मैं सत्य कहता हूँ, ऐसी कोई बात नहीं है .......

माधुरी ने खड़े-खडे विरक्त मन से कहा-'तुम झूठ बोल रहे हो, बिलकुल झूठ । तुम अब भी मन से यह स्वीकार नहीं कर रहे हो कि कोई स्त्री स्वेच्छा से रूप का व्यवसाय नहीं करती। पैसे के लिए अपनी लज्जा को उघाड़ना, तुम्हारी समझ में कुछ ऐसी आनन्द की बात है, जिसे वेश्या शौक से करती है। तुम वेश्या में स्त्रीत्व का होना सम्भव से बहुत दूर समझते हो। तुम इसकी कल्पना ही नहीं कर सकते कि वह क्यों अपने प्रेम में स्थिर नही होती। तुम नहीं जानते कि प्रेम के लिए उसके मन में कितनी व्याकुलता होती है और जब वह सौभाग्य से उसे पा जाती है, तो किस तरह प्राणों की भांति उसे संचित रखती है। खारे पानी के समुद्र में मीठे पानी का‌‌