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वेश्या


छोटा-सा पात्र कितना प्रिय होता है, इसे वह क्या जाने, जो मीठे पानी के मटके उड़ेलता रहता हो।

दयाकृष्ण कुछ ऐसे असमंजस में पड़ा हुआ था कि उसके मुंँह से एक भी शब्द न निकला। उसके मन मे जो शका चिनगारी की भांति छिपी हुई है, वह बाहर निकलकर कितनी भयंकर ज्वाला उत्पन्न कर देगी । उसने कपट का जो अभिनय किया था, प्रेम का जो स्वांग रचा था, उसकी ग्लानि उसे और भी व्यथित कर रही थी।

सहसा माधुरी ने निष्ठुरता से पूछा--तुम यहाँ क्यों बैठे हो ?

दयाकृष्ण ने अपमान को पीकर कहा - मुझे सोचने के लिए कुछ समय दो माधुरी।

'क्या सोचने के लिए ?'

'अपना कर्तव्य ।'

'मैंने अपना कर्त्तव्य सोचने के लिए तो तुमसे समय नहीं मांगा। तुम अगर मेरे उद्धार की बात सोच रहे हो, तो उसे दिल से निकाल डालो। मैं भ्रष्टा हूँ और तुम साधुता के पुतले हो-जब तक यह भाव तुम्हारे अन्दर रहेगा, मैं तुमसे उसी तरह बात करूँगी जैसे औरों के साथ करती हूँ। अगर भ्रष्टा हूँ, तो जो लोग यहाँ अपना मुंँह काला करने आते हैं, वे कुछ कम भ्रष्ट नहीं हैं। तुम जो एक मित्र की स्त्री पर दाँत लगाये हुए हो, तुम जो एक सरला अबला के साथ झूठे प्रेम का स्वांग करते हो, तुम्हारे हाथों अगर मुझे स्वर्ग भी मिलता हो, तो ठुकरा दूंँ।'

दयाकृष्ण ने लाल आँख करके कहा -तुमने फिर वही आक्षेप किया ।

माधुरी तिलमिला उठी। उसकी रही-सही मृदुता भी ईर्ष्या के उमड़ते हुए प्रवाह में समा गई । लीला पर आक्षेप भी असह्य है, इसलिए कि वह कुलबधू है । मैं वेश्या हूँ, इसलिए मेरे प्रेम का उपहार भी स्वीकार नहीं किया जा सकता।

उसने अविचलित भाव से कहा--आक्षेप नहीं कर रही हूँ, सच्ची बात कह रही हूँ। तुम्हारे डर से बिल खोदने जा रही हूँ। तुम स्वीकार करो या न करो, तुम लीला पर मरते हो । तुम्हारी लीला तुम्हे मुबारक रहे । मैं अपने सिंगारसिंह ही में प्रसन्न हूँ। उद्धार की लालसा अब नहीं रही । पहले जाकर अपना उद्धार करो। अबसे खवरदार, कभी भूलकर भी यहाँ न आना, नहीं पछताओगे। तुम-जैसे रँगे हुए पतितो का