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वेश्या

'मैं बिलकुल कुछ नहीं जानता, तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ । मैं तो दो दिन से घर से निकला ही नहीं।'

रात को मैं उसके पास था । सबेरे मुझे उसका यह पत्र मिला । मैं उसी वक्त दौड़ा हुआ उमके घर गया । वहाँ उसका पता न था। नौकरों से इतना सालम हुआ, तांगे पर बैठकर कहीं गई है। कहाँ गई है, यह कोई न बता सका । मुझे शक हुआ, यहाँ आई होगी। जब तक तुम्हारे घर की तलाशी न ले लूँगा, मुझे चैन न आयेगा।'

उसने मकान का एक-एक कोना देखा, तखत के नीचे, आलमारी के पोछे। तब निराश होकर बोला-बड़ी बेवपा और मक्कार औरत है । जरा इस खत को पढो।

'सरदार साहब ! मैं आज कुछ दिनों के लिए यहाँ से जा रही हूँ। कब लौटूँगी, कुछ नहीं जानती । कहाँ जा रही हूँ यह भी नहीं जानती । जा इसलिए रही हूँ कि इस बेशर्मी और बेहयाई की ज़िन्दगी से मुझे घृणा हो रही है, और घृणा हो रही है उन लपटों से, जिनके कुत्सित विलास का में खिलौना थी और जिनमे तुम मुख्य हो। तुम महीनों से मुझ पर सोने और रेशम की वर्षा कर रहे हो, मगर में तुमसे पूछती हूँ, उससे लाख गुने सोने और दस लाख गुने रेशम पर भी तुम अपनी बहन या स्त्री को इस रूप के बाज़ार में बैठने दोगे ? कभी नहीं। उन देवियों में कोई ऐसी वस्तु है, जिसे तुम संसार-भर की दौलत से भी मूल्यवान् समझते हो , लेकिन जब तुम शराब के नशे मे चूर, अपने एक-एक अंग मे काम का उन्माद भरे आते थे, तो तुम्हे कभी ध्यान आता था, कि तुम उसी अमूल्य वस्तु को किस निर्दयता के साथ पैरों से कुचल रहे हो ? कभी ध्यान आता था कि अपनी कुल देवियों को इस अवस्था में देखकर तुम्हें कितना दुख होता ? कभी नहीं। यह उन गीदड़ों और गिद्धो की मनोवृत्ति है, जो किसी लाश को देखकर चारों ओर से जमा हो जाते है और उसे नोच-नोचकर खाते हैं। यह समझ रखो, नारी अपना बस रहते हुए कभी पैसो के लिए अपने को समर्पित नहीं करती। यदि वह ऐसा कर रही हो, तो समझ लो, उसके और कोई आश्रय और कोई आधार नहीं है, और पुरुष इतना निर्लज है कि उसकी दुरवस्था से अपनी वासना तृप्त करता है और इसके साथ ही इतना निर्दय कि उसके माथे पर पतिता का कलक लगाकर उसे उसी दुरवस्था में मरते देखना चाहता है। क्या वह नारी नहीं है ? क्या नारीत्व के पवित्र मन्दिर में उसका स्थान नहीं है ? लेकिन तुम उसे उस मन्दिर में घुसने नहीं देते। उसके स्पर्श से मन्दिर की प्रतिमा भ्रष्ट हो‌