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वेश्या

'मेरे कलेजे पर तो कभी छुरो नहों चली । यही इच्छा होती थी कि इसके पैरों पर गिर पड़ूं।'

'इसो शायरी ने तो यह अनर्थ किया । तुम जैसे बुधुओ को किसी देहातिन से शादी करके रहना चाहिए । चले थे वेश्या से प्रेम करने ।'

एक क्षण के बाद उसने फिर कहा-मगर है बेवफा, मक्कार ।

'तुमने उसमे वफा की आशा की, मुझे तो यही अफसोस है।'

'तुमने वह दिल ही नहीं पाया, तुमसे क्या कहूँ।'

एक मिनट के बाद उसने सहृदय भाव से कहा- अपने पत्र में उसने बातें तो सच्ची लिखी है, चाहे कोई माने या न माने । सौन्दर्य को बाजारी चीज़ समझना कुछ वहुत अच्छी बात तो नहीं है।'

दयाकृष्ण ने पुचारा दिया-सव भी अपना रूप बेचती है, तो उसके खरीदार भी निकल आते है। फिर यहाँ तो कितनो हो जातियाँ हैं, जिनका यही पेशा है।

'यह पेशा चला कैसे ?'

'पुरुषों की दुर्बलता से।'

'नहीं, मैं समझता हूँ, विस्मिल्लाह पुरुषों ने की होगी।'

इसके बाद एकाएक जेब से घड़ी निकालकर देखता हुआ बोला--ओहो ! दो वज गये और अभी मैं यही चैठा हूँ। आज शाम को मेरे यहाँ खाना खाना । जरा इस विषय पर बातें होंगी। अभी तो उसे इंढ निकालना है। वह है कहीं इसी शहर में। घरवालों से भी कुछ नहीं कहा । बुढिया नायका सिर पीट रही थी। उस्तादजी अपनी तकदीर को रो रहे थे। न जाने कहां जाकर छिप रही।

उसने उटकर दयाकृष्ण से हाथ मिलाया और चला।

दयाकृष्ण ने पूछा-मेरी तरफ से तो तुम्हारा दिल साफ हो गया ?

सिगार ने पीछे फिरकर कहा-हुआ भी और नहीं भी हुआ, और बाहर निकल गया।

( ५ )

सात-आठ दिन तक सिंगारसिंह ने सारा शहर छाना, पुलिस में रिपोर्ट की, समा- चारपत्रो में नोटिस छपाई, अपने आदमी दौड़ाये , लेकिन माधुरो का कुछ भी सुराग न मिला। महफिल कैसे गर्म होती। मित्रवृन्द सुबह-शाम हाजिरी देने आते और‌