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मानसरोवर


अपना-सा मुह लेकर लौट जाते। सिंगार के पास उनके साथ गपशप करने का समय न था।

गरमी के दिन, सजा हुआ कमरा, भट्टी बना हुआ था। खस की रट्टियाँ भी थीं, पंखा भी ; लेकिन गरमी जैसे किसी के समझाने-बुझाने की परवाह नहीं करना चाहती, अपने दिल का बुखार निकालकर ही रहेगी।

सिंगारसिह अपने भीतरवाले कमरे में बैठा हुआ पेग-पर-पेग चढा रहा था , पर अन्दर की आग न शान्त होती थी। इस आग ने ऊपर की घास-फूस को जलाकर भस्म कर दिया था और अब अन्तस्तल की जड़-विरक्ति और अचल विचार को द्रवित करके बड़े वेग से ऊपर फेंक रही थी। माधुरी की बेवफाई ने उसके आमोदी हृदय को इतना आहत कर दिया था कि अब अपना जीवन हो उसे बेकार-सा मालस होता था । माधुरी उसके जीवन में सबसे सत्य वस्तु थी, सत्य भी और सुन्दर भी। उसके जीवन की सारी रेखाएँ इसी विन्दु पर आकर जमा हो जाती थी। वह विन्दु एकाएक पानी के बुलबुले की भांति सिट गया और अब वह सारी रेखाएँ, वह सारी भावनाएँ, वह सारी मृदु स्मृतियां, उन झल्लाई हुई मधु-मक्खियो की तरह भनभनाती फिरती थीं, जिनका छत्ता जला दिया गया हो । जब माधुरी ने कपट-व्यवहार किया तो और किससे कोई आशा की जाय ? इस जीवन ही में क्या है ? आम मे रस ही न रहा, तो गुठली किस काम को ?

लीला कई दिन से महफिल में सन्नाटा देखकर चकित हो रही थी। उसने कई महीनो से घर के किसी विषय में बोलना छोड़ दिया था । बाहर से जो आदेश मिलता था, उसे बिना कुछ कहे-सुने पूरा करना ही उसके जीवन का क्रम था। वीतराग-सी हो गई थी। न किसी शौक से वास्ता था, न सिंगार से ।

मगर इस कई दिन के सन्नाटे ने उसके उदास सन को भी चिन्तित कर दिया। चाहती थी कुछ पूछे, लेकिन पूछे कैसे ? मान जो टूट जाता। मान ही किस बात का , मान तब करे, जब कोई उसकी बात पूछता हो। मान-अपमान से उसे प्रयोजन नहीं। नारी ही क्यो हुई।

उसने धीरे-धीरे कमरे का पर्दा हटाकर अन्दर झांका। देखा, सिगारसिंह सोफा पर चुपचाप लेटा हुआ है, जैसे कोई पक्षी साँझ के सन्नाटे में परों में मुंँह छिपाये बेठा हो।