पृष्ठ:मानसरोवर २.pdf/५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५८
मानसरोवर


कहा है उसे भीतर ले जाकर रमा देवी ने कहा- तुम्हारी क्या सलाह है, बीरू का ब्याह कर दूँ ? एक बहुत अच्छे घर से सन्देसा आया है।

प्रकाश ने मुसकिराकर कहा-यह तो वीरू वाबू ही से पूछिए ।

'नहीं, मैं तुमसे पूछती हूँ।'

प्रकाश ने असमंजस मे पड़कर कहा-मैं इस विषय में क्या सलाह दे सकता हूँ। उनका बीसवाँ साल तो है, लेकिन यह समझ लीजिए कि पढ़ना हो चुका ।

'तो अभी न करूँ, यही सलाह है ?

'जैसा आप उचित समझे। मैंने तो दोनो बातें कह दीं।'

'तो कर डालूँ ? मुझे यही डर लगता है कि लड़का कहीं बहक न जाय ।'

'मेरे रहते इसकी तो आप चिन्ता न करें। हाँ, इच्छा हो, तो कर डालिए। कोई हरज भी नहीं है।'

'सब तैयारिया तुम्हींको करनी पड़ेंगी, यह समझ लो।'

'तो मैं इनकार कब करता हूँ ?'

रोटी की खैर मनानेवाले शिक्षित युवको मे एक प्रकार की दुविधा होती है, जो उन्हें अप्रिय सत्य कहने से रोकती है । प्रकाश में भी यही कमज़ोरी थी।

बात पक्की हो गई और विवाह का सामान होने लगा। ठाकुर साहब उन मनुष्यों में थे, जिन्हे अपने ऊपर विश्वास नहीं होता। उनकी निगाह में प्रकाश की डिग्री, उनकी ६० साल की अनुभूति से कहीं मूल्यवान् थी। विवाह का सारा आयोजन प्रकाश के हाथों से था। दस-बारह हज़ार रुपये खर्च करने का अधिकार कुछ कम गौरव की बात न थी। देखते-देखते एक फटेहाल युवक जिम्मेदार मैंनेजर बन बैठा। कहीं कपड़े- वाला उसे सलाम करने आया है, कहीं मुहल्ले का बनिया घेरे हुए है, कहीं गैस और शामियानेवाला खुशामद कर रहा है। वह चाहता तो दो-चार सौ रुपये बड़ी आसानी से बना लेता , लेकिन इतना नीच न था। फिर उसके साथ क्या दगा करता, जिसने सब कुछ उसी पर छोड़ दिया ! पर जिस दिन उसने पाँच हजार के जेवर खरीदे, उस दिन उसका मन चंचल हो उठा।

घर आकर चम्पा से बोला-हम तो यहाँ रोटियों के मुहताज हैं और दुनिया मे ऐसे-सेसे आदमी पड़े हुए हैं, जो हजारो-लाखों रुपये के ज़ेवर बनवा डालते हैं। 'ठाकुर साहब ने आज बहू के चढाने के लिए पांच हजार के जेवर खरीदे । ऐसी-ऐसी