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मानसरोवर

'ठाकुर साहब भी मतलब के यार हैं। यह न हुआ कि कहते, इसमे से कोई चीज चम्पा के लिए लेते जाओ।'

'तुम भी कैसी बच्चो की-सी बातें करते हो।'

'इसमे बचपन की क्या बात है ? कोई उदार आदमी कभी इतनी कृपणता न करता।'

'मैंने तो कोई ऐसा उदार आदमी न देखा, जो अपनी बहू के गहने किसो गैर को दे दे।'

'मैं गैर नहीं हूँ। हम दोनों एक ही मकान में रहते हैं, मैं उनके लड़के को पढाता हूँ और शादी का सारा इन्तज़ाम कर रहा हूँ, अपर सौ दो-सौ की कोई चीज दे देते तो वह निष्फल न जाती , मगर धनवानों का हृदय धन के भार से दबकर सिकुड़ जाता है। उसमे उदारता के लिए स्थान ही नहीं रहता।'

रात के बारह बज गये हैं, फिर भी प्रकाश को नींद नहीं आती। बार-बार वही चमकीले गहने आँखों के सामने आ जाते हैं। कुछ बादल हो आये हैं और बार-बार बिजली चमक उठती है।

सहसा प्रकाश चारपाई से उठ खड़ा हुआ। उसे चम्पा का आभूषणहीन अंग देखकर दया आई। यही तो खाने-पहनने की उम्र है और इसी उम्र में इस बेचारी को हरएक चीज़ के लिए तरसना पड़ रहा है। वह दबे-पाँव कमरे से बाहर निकलकर छत पर आया । ठाकुर साहब की छत इस छत से मिली हुई थी। बीच में एक पांच फीट ऊँची दीवार थी। वह दीवार पर चढकर ठाकुर साहब की छत पर आहिस्ता से उतर गया। घर में बिलकुल सन्नाटा था। ।

उसने सोचा, पहले जीने से उतरकर ठाकुर साहब के कमरे मे चलूँ ; अगर वह जाग गये तो जोर से हँसूँगा और कहूँगा, कैसा चरका दिया, या कह दूंँगा, मेरे घर की छत से कोई आदमी इधर आता दिखाई दिया ; इसलिए मैं भी पीछे-पीछे आया कि देखू, यह क्या करता है ; अगर सन्दूक की कुजी मिल गई, तो फिर फतह है। किसी का मुझपर सन्देह ही न होगा। सब लोग नौकर पर सन्देह करेंगे। मैं भी कहूँगा, साहब नौकरों की हरकत है। इन्हें छोड़कर और कौन ले जा सकता है। मैं बेदाग बच जाऊँगा। शादी के बाद कोई दूसरा घर ले लूँगा। फिर धीरे-धीरे । एक-एक चीज़ चम्पा को दूंँगा, जिसमें उसे कोई सन्देह न हो।