लगा। असाढ के दिन थे। ऊमस के मारे दम घुटता था। ऊपर एक साफ-सुथरा
बरामदा था, जो बरसात में सोने के लिए ही शायद बनाया गया था। चम्पा ने कई
बार ऊपर सोने के लिए कहा, पर प्रकाश न माना । अकेला घर कैसे छोड़ दे।
चम्पा ने कहा---चोरी ऐसो के यहां नहीं होती। चोर घर में कुछ देखकर ही जान खतरे मे डालता है। यहाँ क्या रखा है।
प्रकाश ने कुद्ध होकर कहा-~-कुछ नहीं है, तो बरतन-भाड़े तो हैं ही। गरीब के लिए अपनी हाँडी ही बहुत है। ।
एक दिन चापा ने कमर में झाड़ू लगाई, तो सन्दूक को खिराकाकर दूसरी तरफ रख दिया । प्रकाश ने सन्दुक का स्थान बदला हुआ पाया, तो सशक होकर बोला- सन्दुक तुमने हटाया ?
यह पूछने की कोई बात न थी। भाङू लगाते वक्त प्रायः चीजें इधर-उधर खिसक जाती ही हैं । बोली-~-मैं क्यों हटाने लगी।
'फिर किसने हटाया ?
'मैं नहीं जानती।'
'घर मे तुम रहती हो, जानेगा कौन ?'
'अच्छा, अगर मैंने ही हटा दिया तो इसमे पूछने की क्या बात है ?'
'कुछ नहीं, यों ही पूछता था।'
मगर जब तक सन्दूक खोलकर सब चीजें देख न ले, प्रकाश को चैन कहा। चम्पा ज्योही भोजन पकाने लगी, उसने सन्दूक खोला और आभूषणो को देखने लगा । आज चम्पा ने पकौड़ियां वनाई थीं। पकौड़ियां गरम-गरम ही मजा देती हैं। प्रकाश को पकौड़ियाँ पसन्द भी थीं। उसने थोङी-सी पकौड़ियाँ एक तश्तरी में रखी और प्रकाश को देने गई। प्रकाश ने उसको देखते ही सन्दूक धमाके से बन्द कर दिया और ताला लगाकर उसे बहलाने के इरादे से बोला-तस्तरी मे क्या लाई ! अच्छा ! पकौड़ियाँ हैं।
आज चम्पा को सन्देह हो गया। सन्दूक में क्या है, यह देखने को उत्सुकता हुई। प्रकाश उसकी कुझी कहीं छिपाकर रखता था। चम्पा किसी तरह वह कुञ्जी उड़ा लेने की चाल सोचने लगी। एक दिन एक विसाती कुञ्जियों का गुच्छा बेचने आ निकला । चम्पा ने उस ताले की कुञ्जी ले ली और और सन्दूक खोल डाला। अरे ।