पृष्ठ:मानसरोवर २.pdf/७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७०
मानसरोवर

किसी गहरी अथाह खाई में गिरा जा रहा हो। आज सन्दूकचे को लौटाकर उसे मालूम हो रहा था, जैसे वह किसी विमान पर बैठा हुआ आकाश की और उड़ा जा रहा है-ऊपर, ऊपर और ऊपर।

वह घर पहुंचा तो बीरू सोया हुआ था । कुञ्जी उसने सिरहाने रख दी ।

(८)

ठाकुर साहब प्रात: काल चले गये।

प्रकाश सन्ध्या-समय पढाने जाया करता था। आज वह अधीर होकर तीसरे ही पहर जा पहुंचा। देखना चाहता था, वहां आज क्या गुल खिल रहे हैं।

वीरेन्द्र ने उसे देखते ही खुश होकर कहा-बाबूजी, कल आपके यहाँ की दावत बड़ी मुबारक थी। जो गहने चोरी गये थे, सब मिल गये ।

ठाकुर साहब भी आ गये और बोले-बड़ी मुबारक दावत थी तुम्हारी। पूरा सन्दूक-का-सन्दूक मिल गया । एक चीज भी नहीं छुई । जेसे केवल रखने ही के लिए ले गया हो ।

प्रकाश को इन बातो पर कैसे विश्वास आये, जब तक वह अपनी आँखों से सन्दूक देख न ले। कहीं ऐसा भी हो सकता है कि चोरी गया हुआ माल छः महीने बाद मिल जाय, और ज्यो-का-त्यो ।

सन्दूक को देखकर उसने गम्भीर भाव से कहा-बड़े आश्चर्य की बात है ! मेरी बुद्धि तो कुछ काम नहीं करती।

ठाकुर-~किसी को बुद्धि कुछ काम नहीं करती भई, तुम्हारी ही क्यो ! वीरू की माँ कहती है, कोई दैवी घटना है। आज से मुझे भी देवताओं में श्रद्धा हो गई।

प्रकाश--अगर आँख देखी बात न होती, तो मुझे कभी विश्वास न आता।

ठाकुर-आज इसी खुशो से हमारे यहाँ दावत होगी।

प्रकाश---आपने कोई अनुष्ठान तो नहीं कराया था?

ठाकुर-अनुष्टान तो बीसों ही कराये।

प्रकाश-बस, तो यह अनुष्ठानों ही की करामात है।

घर लौटकर प्रकाश ने चम्पा को यह खबर सुनाई, तो वह दौड़कर उनके गले से चिमट गई और न जाने क्यों रोने लगी, जैसे उसका विछुड़ा हुआ पति बहुत दिनों के बाद घर आ गया हो।